गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

इनका दुख भी पूछें

भूकंप ने गुजरात के कई शहरों, कस्बों और गांवों को तबाह करके रख दिया है। यहां के लोगों का जो नुकसान हुआ है वह अकल्पनीय है। उसकी भरपाई आसानी से नहीं की जा सकती। शुरूआती बचाव और राहत के बाद अब इस बात की फिक करने का समय है कि भूकंप से तबाह हुए लोगों को फिर से किस तरह बसाया जाए। इस विनाश के बाद कई लोग अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेंगे। नए सिरे से रोजगार ढूंढेंगे, नए सिरे से काम खोजेंगे। केंद्र और राज्य सरकार इन सबकी मदद कर रही है। सारा देश इनकी मदद कर रहा है। इस मदद के बगैर तबाह लोगों का फिर से अपने पैरों पर खड़ा होना नामुमकिन तो नहीं कठिन जरूर है। कितने ही लोगों को सर छिपाने के लिए तम्बू मिल रहे हैं। खाने के लिए जो मिल जाए वह गनीमत है। व्यापार- व्यवसाय ठप्प है। कौन खरीदेगा, कौन बेचेगा- यह सवाल है। इन हालात में बहुत से परिवार अस्थायी रूप से अपने परिजनों के यहां चले गए हैं। और बाहर से रोजी रोटी कमाने के लिए गए मजदूरों को भी वहां से लौटना पड़ रहा है। देशबन्घु ने ऐसे मजदूरों के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित की है। ईंटभट्ठों में काम करने वाले मजदूर भूकंप से घबराकर घर लौट रहे हैंं। उन्हें नहीं मालूम कि घर लौट कर उन्हें क्या मिलने वाला है। अकाल से घबराकर ये लोग अपना घर बार छोड़कर गए थे। अपने देस में रोजी रोटी न मिलने के कारण यहां से गए थे। छीसगढ़ से बड़ी संख्या में मजदूर देश के अलग अलग प्रदेशों में हर साल मजदूरी करने जाते हैं। देश के दूसरे प्रदेशों से भी संपन्न इलाकों की तरफ ऐसा पलायन होता है। अब ये लोग अपने अपने घर लौट रहे हैं। और एक मुद्दा यह भी है कि इनका क्या होगा। अब ये कहां जाएंगे, क्या खाएंगे। इनकी फिक कौन करेगा क्या इनके लिए भी स्थानीय स्तर पर कोई मदद जुटाई जाएगी। क्या इन्हें कोई काम मिल पाएगा पलायन करने वाले मजदूरों के बारे में हम कई बार लिख चुके हैं कि इनकी फिक की जानी चाहिए। हालांकि आदर्श स्थिति तो यह होगी कि काम न मिलने की मजबूरी से किसी को अपना घर बार छोड़कर कहीं न जाना पड़े। लेकिन जब तक रोजगार के इतने अवसर पैदा नहीं होते, विकास इतनी रफ्तार नहीं पकड़ता कि इतने सारे लोगों की यहीं जरूरत पड़े, तब तक इतना तो किया जा सकता है कि जो लोग बाहर रोजी रोटी तलाश रहे हैं उनकी सलामती का खयाल रखा जाए। गुजरात से लौटने वाले मजदूरों की खबरों के अलावा उन मजदूरों के बारे में भी खबरें आ रही हैं जो यहां से गए तो हैं लेकिन कहां हैं किसी को नहीं मालूम। छीसगढ़ के लवन से एक ऐसी ही खबर आई है जिसके मुताबिक यहां से हर साल की तरह बड़ी संख्या में लोग इघर उघर गए हैं। कुछ गुजरात भी गए हैं। उनका अतापता नहीं है। गुजरात से लौटने वाले श्रमिकों से यह भी पता चल रहा है कि उनके साथी बंघक के रूप में काम कर रहे हैं। इन खबरों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। यह पहली बार नहीं है कि प्रवासी मजदूरों को बंघक बनाकर रखे जाने की खबर आई है।मगर जो मजदूर ठेकेदारों के चंगुल से बचकर भाग निकलते हैं उनकी बताई कहानियां ही सामने आ पाती हैं। बाकी का क्या होता है, यह जानने का कोई तरीका स्थानीय प्रशासन के पास होना चाहिए। मगर फिलहाल थोड़ी सी चिंता उन मजदूरों की कर ली जानी चाहिए जो अकाल के मारे यहां से गए थे और जिन्हें भूकंप ने लौटा दिया। इन्हें निस्संदेह मदद की जरूरत है। और स्थानीय प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अकाल राहत के काम में या कहीं और इनकी रोजी रोजी का प्रबंघ हो सके। इनसे जानकारी लेकर बचे हुए मजदूरों के बारे में भी पता किया जाना चाहिए। गुजरात के लिए सारे देश से जो मदद आयी है वह इस बात की गवाह है कि देश के पास संसाघनों की कमी नहीं है। बड़ी बड़ी न्नासदियों से निबटने के लायक संसाघन हैं। जरूरत उनके इस्तेमाल की है। भूकंप के बहाने इन संसाघनों के और बेहतर इस्तेमाल के बारे में सोचा जाना चाहिए। पलायन को मजबूर लोगों की मजबूरी दूर करने के बारे में इस नए संदर्भ में सोचना चाहिए।

भटाचार का खेल जारी

पुराने मयप्रदेश और अब नए राज्य छीसगढ़ के उपेक्षित गिने जाने वाले इलाके बस्तर से एक खबर आई है कि मयान्ह भोजन योजना में भारी घोटाला किया गया है। बタाों को खाना खिलाने के नाम पर दिए जाने वाले सरकारी पैसे का हिसाब किताब नहीं मिल रहा है। इसका ऑडिट करने के लिए जो टीम भेजी जा रही है उसे हिसाब बताने वाले नहीं मिल रहे हैं और खबर के मुताबिक सरपंच और पंचायत सचिव ऑडिट वालों को देखकर लापता हो जा रहे हैं। यह खबर सिर्फ जगदलपुर जिले की है। बाकी जगहों के बारे में लगातार खबरें आती रहती हैं। पुराने मयप्रदेश में भी यही हाल था और अब छीसगढ़ में भी यही हाल है। यह योजना १९९५ से चल रही है जिसके तहत हर विद्यार्थी के पीछे सौ गाम चावल और नमक, तेल, दाल व लकड़ी के लिए ७५ पैसे दिए जाते हैं। भट व्यवस्था इतनी छोटी सी मदद भी उन तक पहुंचने नहीं दे रही है। यह सिर्फ एक योजना का हाल है। और इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकारी योजनाओं का किस तरह सत्यानाश किया जा रहा है, उसका लाभ सही जगह पहुंचने से किस तरह रोका जा रहा है और सरकारी पैसा किस तरह अपनी जेबों में भरा जा रहा है। नवजात बタाों, वृद्घों, गर्भवती महिलाओं, निराश्रितों के लिए दिया गया पैसा और पोषक आहार उन तक कितना पहुंच रहा होगा यह इससे अनुमान लगाया जा सकता है। दोपहर भोजन योजना को तत्कालीन प्रघानमंन्नी पीवी नरसिंह राव की राजनीतिक घोषणा कहा गया था। लेकिन राजनीति से परे, इस योजना में एक आकर्षण था और एक उपयोगिता भी थी। स्कूलों को बタाों के लिए अघिक आकर्षक बनाने में, अघिक उपयोगी और अघिक जरूरी बनाने में यह योजना कामयाब हो सकती थी अगर ईमानदारी से इसे लागू किया जाता। लेकिन कहीं व्यावहारिक दिक्कतों के कारण और कहीं भटाचार के कारण यह योजना भी दूसरी तमाम योजनाओं की तरह फ्लॉप साबित हो गयी। और इस भटाचार में हर स्तर के लोग शामिल हैं। खाद्य निगम पर आरोप है कि उसने योजना के लिए सड़ा गला अनाज दिया। इस योजना के लागू होने के पहले से इसे लेकर शंकाएं उठाई जा रही थीं कि व्यावहारिक रूप से यह कमजोर है, इसके लिए दिया जा रहा पैसा अपर्याप्त है। लेकिन एक मौका था बच्चों के पालकों, पंचायतों, जनप्रतिनिघियों, समाजसेवी संस्थाओं और दूसरे तमाम लोगों के पास कि बच्चों को खाना खिलाने की इस योजना में जो भी कमियां हैं उन्हें वे अपने उद्यम से दूर कर लेंगे। ऐसा बहुत से लोगों ने किया, शिक्षकों ने साइकिल पर जलाऊ लकड़ियां और राशन ढोया, खाना बनाया, बタाों को खिलाया पिलाया। लेकिन जल्द ही अव्यवस्था और भटाचार ने इसे बदनाम कर दिया। जनता के बीच से इतना पैसा इकट्ठा नहीं हो सका कि नियमित दोपहर भोजन के चूल्हे में आग जल सके। सेवाभावी लोग अपना समय इसे नहीं दे सके। एक दो शिक्षकों वाले स्कूलों के शिक्षक अघिक समय तय इस योजना का बोझ नहीं ढो सके।दूर दराज के गांवों की बात तो दूर, बड़े शहरों में भी सरकारी योजनाओं के पैसे के साथ यही हो रहा है। रायपुर के भी स्कूलों में यह योजना लागू की गयी थी और चार महीने दोपहर भोजन का चावल न मिलने की शिकायत लेकर बタाों तक ने तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष के निवास पर घरना दे दिया था। जहां खाना खिलाने के बजाय चावल देना तय किया गया वहां चावल के लिए बタाों को राशन दूकानों के चक्कर लगाने पड़े और लंबी लाइनें लगने लगीं। भटाचार का आलम यह था कि कई राशन दूकानों से यह जानकारी दी जाने लगी कि यह योजना ही बंद हो गई है। शुरू शुरू में अव्यवस्था और भटाचार की खबरों पर कार्रवाइयां भी हुईं और उनसे दहशत भी फैली। महासमुंद के तत्कालीन अनुविभागीय अघिकारी को दंडित किया गया, सरगुजा जिले में बारह शिक्षकों को निलंबित किया गया। मगर बाद में यह सजगता और तत्परता खत्म हो गयी। इसी का नतीजा है कि भटाचार इतना ज्यादा हो रहा है कि ऑडिट वालों को देखकर सरपंच- पंचायत सचिव भागे भागे फिर रहे हैं। नया राज्य बना है तो लोगों की उम्मीदें ज्यादा हैं। नए मुख्यमंन्नी प्रशासनिक अघिकारी रहे हैं इसलिए भी उनसे उम्मीद ज्यादा है। मगर इन उम्मीदों के बदले वही खबरें लगातार मिल रही हैं। अगर इसे गंभीरता से नहंी लिया गया तो उम्मीदें टूटेंगी। बस्तर से आने वाली भटाचार की हर खबर नक्सलवाद के पक्ष में एक तर्क दे जाती है। मुख्यमंन्नी ने कई बार कहा है कि जिन समस्याओं को लेकर जनता में असंतोष है उनका समाघान कर देना नक्सलवाद से निबटने का सबसे उपयुक्त रास्ता है। बस्तर प्रशासन को, वहां के जनप्रतिनिघियों को इस दिशा में गंभीरता से काम करना चाहिए।

किकेट के बेन जानसन

खेल जगत में अभी बुरी खबरों का सिलसिला खत्म नहीं हुआ है। और ये खबरें किकेट और किकेटरों के बारे में ही हैं। खेल मंन्नालय ने उन किकेटरों से अर्जुन पुरस्कार वापस लेने का इरादा व्यक्त किया है जिन पर मैच फिक्सिंग में आरोप साबित हुए हैं।बोर्ड ने इन दोषी खिलाड़ियों को पांच साल के लिए प्रतिबंघित भी कर दिया है।मोहम्मद अजहरूद्दीन, मनोज प्रभाकर और अजय जडेजा ऐसे खिलाड़ी हैं जिनको अर्जुन पुरस्कार मिल चुका है और जिनको किकेट बोर्ड और सीबीआई की जांच में दोषी पाया गया है। खेल मंन्नालय ने कोई कार्रवाई करने के पहले इन खिलाड़ियों को अपना पक्ष रखने का मौका दिया था लेकिन तीनों ही खिलाड़ियों ने इसके लिए बनाए गए आयोग के सामने पेश होना जरूरी नहीं समझा। खबर है कि ये सभी खिलाड़ी खेल मंन्नालय के इस प्रस्तावित फैसले के खिलाफ अदालत में जाने का मन बना रहे हैं। मनोज प्रभाकर ने तो बाकायदा चुनौती दी है कि खेल मंन्नालय उनका पुरस्कार वापस लेकर तो दिखाए। उनका कहना है कि उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया है जिसके कारण उनसे उनका पुरस्कार वापस लिया जाए। मनोज प्रभाकर अगर यह कह रहे हैं कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है तो उनका अपना पक्ष है। लेकिन सीबीआई और किकेट बोर्ड की जांच का नतीजा है कि वे और उनके साथी खिलाड़ी दोषी हैं। और उन पर कार्रवाई उनके दोषी साबित होने के आघार पर की जा रही है। ऐसे में हमारा मानना है कि कार्रवाई सही है और दोषी खिलाड़ियों को पूर्व में दिए गए सम्मान वापस ले लिए जाने चाहिए। उनके इन तकोर्ं से हम सहमत नहीं हैं कि ये सम्मान उन्हें अपने प्रदर्शन के आघार पर दिया गया है और इस पर उनका हक है। सम्मान की यह अवघारणा सही नहीं है। पुरस्कार पाने की प्रशासनिक प्रकिया और पैसे कमाने के लिए खेलने की व्यावसायिक सोच - इन सब बातों ने मिलकर सम्मान के बारे में इस नयी अवघारणा को जन्म दिया है। खिलाड़ी को देश की ओर से दिया गया सम्मान उसके ारा खेल से कमाए गए पैसे से अलग चीज है। उसका महत्व खिलाड़ी की निजी संपि होने से ज्यादा है। राट्रीय पुरस्कार उन लोगों को दिए जाते हैं जो राट्रीय गौरव का विषय होते हैं। वे राट्रीय गौरव के रूप में इतिहास में दर्ज होते हैं। पीढ़ियां उनसे सबक लेती हैं। किसी सम्मान का महत्व किसी पेंशन की तरह थोड़े समय बाद खत्म नहीं हो जाता। इस बारे में दोषी साबित खिलाड़ियों की राय अलग हो सकती है पर हमारा मानना है कि जो खिलाड़ी देश की तरफ से सम्मानित होते हैं, जनता जिन्हें सर आंखों पर बिठाती है उनके लिए वे भी उタातर जीवन मूल्यों के उदाहरण पेश करें। मगर कम खिलाड़ी हैं जो इसका यान रखते हैं। बहुत कम खिलाड़ियों का जीवन ऐसा है जिसे अनुकरणीय माना जाए। सादगी और शिटाचार का जीवन जीने वाले खिलाड़ियों की संख्या घटती जा रही है। मीडिया की नजरें जब और तेज होती जा रही हैं, वह अपनी जिम्मेदारियों की परवाह कम करता जा रहा है तब तो खिलाड़यों को और भी ज्यादा इस बात का यान रखना चाहिए कि उनका आचरण उनके प्रशंसकों के लिए अनुकरणीय हो, देश के लिए गौरव का विषय हो। पर बाजार की संस्कृति इतनी हावी है कि जन भावनाओं की, जन अपेक्षा की कद्र करने की जरूरत ही नहीं समझी जाती। देश के सम्मान के बारे में सोचने की जरूरत नहीं समझी जाती। एक समय था जब देश के लिए किकेटरों ने कैरी पैकर की बड़ी बड़ी राशियों का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। ये बहुत कम पैसों में खेलने वाले किकेटर थे जिनके लिए वह पैसा और ज्यादा जरूरी था। लेकिन आज जिन्हें पहले से बहुत ज्यादा पैसा मिल रहा है, अपने बहुत से जरूरी और बुनियादी सरोकारों को भूल गए हैं। शेन वार्न सट्टेबाजों से संबंघ साबित होने के बाद भी अपने देश की टीम में खेल रहे हैं, माराडोना खुद को शताब्दी का सर्वश्रेठ खिलाड़ी घोषित न किए जाने से नाराज हो रहे हैं, बायन लारा अपनी गर्लफेंड के लिए अपने खेल की तरफ यान न देने का आरोप झेल रहे हैं। ये घटनाएं खेल जगत में जो कुछ चल रहा है उसके बारे में बहुत आशा नहीं जगातीं। सम्मान ऐसी चीज है जो खरीदने से नहीं मिलती। उसका मतलब समझने की जरूरत है। अगर खिलाड़ियों को लगता है कि उन्हें दोषी ठहराने का फैसला गलत है तो वे इसके खिलाफ अपील कर सकते हैं। लेकिन दोषी साबित होने के आघार पर अगर यह फैसला किया जाता है कि उन्हें दिया गया सम्मान वापस ले लिया जाए तो यह गलत नहीं है। वैसे पुरस्कार तो एक प्रतीक है और उसे देना और वापस लेना तो महज एक औपचारिकता है। जन नायकों के सम्मान और असम्मान का असली फैसला जनता करती है। खिलाड़ियों को इस बात की फिक करनी चाहिए कि जनता उनके बारे में क्या सोचती है। अगर जनता उनके साथ है तो उन्हें किसी सम्मान के मिलने न मिलने की फिक नहीं करनी चाहिए। कितने खिलाड़ियों को यह विश्रास है कि जनता उनके साथ है

स्थिरता से बड़ी जिम्मेदारी

देश के संवैघानिक प्रमुख राट्रपति के आर नारायणन ने एक बार फिर संविघान पर की जा रही चोट और उसे लोकतंन्न से दूर ले जाने की कोशिशों पर प्रतिकिया व्यक्त की है। गणतंन्न दिवस की पूर्व संया पर देश के नाम अपने संबोघन में उन्होंने कहा है कि देश को राजनीतिक स्थिरता की जो जरूरत बताई जा रही है उससे ज्यादा जरूरी सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही है। उन्होंने सीमित मताघिकार और अप्रत्यक्ष प्रणाली की हो रही वकालत पर चोट करते हुए इसे एक विडंबना बताया है कि पाकिस्तान के फौजी शासक अयूब खान के विचारों के साथ गांघी का नाम जोड़ा जा रहा है। राट्रपति का यह एक और उल्लेखनीय संबोघन देश के नाम है। इससे पहले उन्होंने संविघान समीक्षा और संविघान संशोघन की कोशिशों के संदर्भ में कहा था कि जरूरत संविघान में संशोघन की नहीं, उसके कियान्वयन में होने वाली ढिलाई दूर करने की है। राट्रपति ने इस बार कहा है कि संविघान बनाने वालों ने जनता पर भरोसा किया था इसलिए सरकार चुनने का अघिकार उसे दिया था। यानी आज भी जो लोग इस व्यवस्था में खामी देख रहे हैं उन्हें भी जनता पर भरोसा करना चाहिए। लोकसभा, विघानसभाओं का कार्यकाल सुनिश्चित होना चाहिए, सरकार के खिलाफ अविश्वास मत लाया जाए तो विकल्प के साथ लाया जाना चाहिए- यह बातें कुछ अरसे से की जा रही हैं। चुनाव आयोग के ५० साल होने के अवसर पर आयोजित समारोह में प्रघानमंन्नी अटल विहारी वाजपेयी ने इसी तरह की बातें कही हैं। संविघान समीक्षा की बातें भी उठ रही हैं। संविघान मंें कमजोरियां देखने के तमाम प्रयासों पर राट्रपति ने अपने संबोघन में यान आकर्षित किया है। आम तौर पर राट्रपति के भाषण रस्मी माने जाते हैं लेकिन श्री नारायणन ने इस मौके का उपयोग देश के लिए महत्वपूर्ण और उपयोगी बौद्घिक चर्चा करने के लिए किया है। और देश को लोकतंन्न से दूर ले जाने की कोशिशों से देशवासियों को सावघान भी किया है। देश का राजनीतिक तंन्न अघिकाघिक बाहरी शक्तियों से संचालित हो रहा है, निहित स्वाथांेर्ं से प्रेरित हो रहा है, उसमें जनहित की चिंता कम होती जा रही है, जनविरोघी नीतियां अघिक प्रश्रय पा रही हैं, विकास के फायदे जनता के लिए कम बाजार पर प्रभुत्व रखने वाली ताकतों को अघिक हो रहे हैं यह आज देश और देशवासियों के सामने खड़ी कुछ चिंताएं हैं। कुछ समय पहले इन चिंताओं को सिर्फ सुना जाता था, अब महसूस किया जाने लगा है। बहुराट्रीय आर्थिक ताकतों के आगे देश की मौलिक अर्थव्यवस्था के पांव उखड़ रहे हैं। एक तरफ गांघी की अर्थव्यवस्था से प्रेरणा लेने की जरूरत महसूस की जा रही है, जनता को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिशें हो रही हैं, जनता के भरोसे देश को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिशें हो रही हैं, जनता पर भरोसा किया जा रहा है तब दूसरी ओर तंन्न को जनता से दूर ले जाने की कोशिशें भी हो रही हैं। लोकसभा का कार्यकाल सुनिश्चित करने की बात की जा रही है। सुनने मंें यह बात कई लोगों को अच्छी लग सकती है लेकिन देश को नियम कानून से उपजी स्थिरता की जरूरत नहीं है। कुछ लोगों को सा में बनाए रखने की मूल चिंता से पैदा हुई स्थिरता देश की जरूरत नहीं है। एक बार चुन लिए जाने के बाद मनमानी करने की छूट पाने की ललक से जिस राजनीतिक स्थिरता की बात की जा रही है वह देश को नहीं चाहिए। ये सारी कोशिशें तंन्न को जनता के कब्जे से निकालने की हैं, उसे जनता से दूर ले जाने की हैं। यह जनता की नजरों से दूर रहकर अपनी मर्जी के कुछ भी करने का लाइसेंस पाने की कोशिश है। राट्रपति ने बड़ी अच्छी बात कही है कि स्थिरता से ज्यादा जरूरत जवाबदेही की है। जनता के प्रति जवाबदेही की। जो तंन्न जनता के प्रति जितना ज्यादा जवाबदेह होगा वह ज्यादा से ज्यादा लोकतंन्न के करीब होगा। जनता के पति वही तंन्न जवाबदेह होगा जो जनता का हो, जनता के ारा चलाया जाए, जनता के लिए चलाया जाए। घनबल- बाहुबल से, छल से, नेताओं-अफसरों-पूंजीपतियों के लिए, स्वार्थी लोगांें का तंन्न लोकतंन्न नहीं हो सकता और लोकतंन्न की अपेक्षाओं से, उसकी बायताओं से उसे घुटन ही होगी। आज जिस राजनीतिक स्थिरता की बात की जा रही है उसमें अघिकारों की चिंता दिखाई देती है, कर्तव्यों की नहीं। हम राट्रपति की बातों से सहमत हैं। देश को जरूरत सरकार की जवाबदारी से है। यह सरकार की कमजोरी हो सकती है कि वह अपनी जवाबदारियों को पूरा न कर सके। यह उसमें शामिल लोगों की नीयत का खोट हो सकता है, उनके स्वाथोर्ं का नतीजा हो सकता है, इ्‌च्छा शक्ति की कमी का परिणाम हो सकता है कि जनता के प्रति जवाबदारियां पूरी न हो सकें। लेकिन इनके लिए सुघार किसमें किया जाए यह सोचना चाहिए। लोकतंन्न की मूल भावना यह है कि जनता पर भरोसा किया जाए। और देश की जनता ने अपनी परिपक्वता के सबूत बार बार दिए हैं। दिक्कत यह है कि उसके सामने कुआं और खाई में से किसी एक को चुनने के विकल्प रख दिए जाते हैं। सुघार की असली जरूरत यहां है।

संकट मोचन कहां थे

गुजरात में भूकंप ने विनाशलीला मचा दी है। भुज शहर और उसके आसपास के गांव तबाह हो गए हैं। पंद्रह से बीस हजार लोगों के मरने की खबर आ रही है और यह आंकड़ा आगे भी जा सकता है। हजारों लोग जिंदा या मुर्दा मलबे के नीचे दबे हुए हैं और मलबा हटाकर उन्हें निकालने का काम युद्घ स्तर पर चल रहा है। स्थानीय लोग, स्वयंसेवी संस्थाएं, पुलिस, नागरिक प्रशासन, सेना सभी इस काम में जुटे हुए हैं। भूकंप पीड़ितों की मदद के लिए सारी दुनिया से सहायता आ रही है। देश के कोने कोने से स्वयंसेवक, डॉक्टर, जरूरी सामान आ रहा है। ट्रेनें यान्नियों को मुफ्त ढो रही हैं। एयरलाइन्स मुफ्त राहत सामगी ढो रही है। विदेश से दवाएं आ रही हैं, सूंघने वाले कुे आ रहे हैं, चलता फिरता अस्पताल आ रहा है, कंकीट काटने वाले यंन्न आ रहे हैं, संचार उपकरण आ रहे हैं। संयुक्त राट्र और रेडकास की सहायता मिल रही है, राज्य सरकारें मदद कर रही हैं, केंद्र सरकार से मदद की घोषणा हुई है। मगर इसके बाद भी भूकंप पीड़ितों को लग रहा है कि यह सब नाकाफी है। जिस इलाके में पंद्रह हजार लोग कुछ सेकंड्‌स के भीतर मारे जाएं, उनकी लाशें मलबे में फंस जाएं, रहने को घर न रहे, खाने का ठिकाना न रहे और आगे क्या होगा इस सवाल का कोई ढाढस बंघाने वाला जवाब न हो वहां किसी को राहत का अहसास दिलाना असंभव है। जहां अस्पताल खुद ढह गए हों वहां लोगांें को चिकित्सा सुविघा उपलब्घ कराना कठिन है, जहां रसोइयां बाकी न हों वहां लोगों के खाने पीने की चिंता करना दुकर है। लेकिन इस सबके बावजूद भूकंप पीड़ितों को, खास तौर पर भुज और आसपास के गांवों को इस बात का लंबा इंतजार करना पड़ा कि उनकी मदद के लिए लोग आएं, सरकारी सहायता आए। मलबा हटाया जा सके, उसके भीतर से जिन जिंदा लोगों की आवाजें आ रही हैं उन्हें जीवित ही बाहर निकाला जा सके। छब्बीस जनवरी की सुबह भूकंप आया और भुज के बारे में खबरें दूसरे दिन मिलना शुरू हुईं। जिस तीवता का भूकंप आया था, रिहायशी इलाके के जितने करीब आया था उससे अंदाज लगाया जा सकता था कि कच्छ में क्या हाल हुआ होगा। अहमदाबाद में हुए विनाश से यह अंदाजा लगाया जा सकता था कि भुज और उसके आसपास क्या हाल हुआ होगा। मगर दूसरे दिन तक स्थानीय लोग ही राहत कायोर्ं में जुटे रहे। उनके पास पर्याप्त औजार भी नहीं थे। केनें बहुत देर से पहुंची, सेना की मदद देर से पहुंची, राहत की घोषणाएं मंथर गति से हुईं। और जनता को घोषणाएं नहीं चाहिए थीं। मरने वालों के पीछे कितने लाख दिए जाएंगे, यह घोषणा नहीं चाहिए थी। जनता को तंबुओं, बिस्तरों, कंबलों, दवाओं, खाने पीने की चीजों की जरूरत थी। राहत कायोर्ं में लगे लोगों को केनों और डम्परों की जरूरत थी। वह तब बहुत देर से उपलब्घ हुआ। चिकित्सा सुविघाएं बहुत देर से वहां के लिए रवाना हुईं। कितना अच्छा होता कि टेलीविजन पर या दूसरे किसी मायम से इतनी तीवता के भूकंप की खबर आते ही सेना के कई कई विमान उड़कर प्रभावित इलाके में राहत सामगी और पैराट्रूपर राहतकर्मी छोड़ आते। सेना के हेलीकॉप्टरों को तत्काल उड़ना था और कुछ न कुछ लेकर भूकंप प्रभावित इलाकों में पहुंच जाना था। आसपास के हर शहर-कस्बे से चिकित्सा दल जरूरी दवाओं के साथ रवाना हो जाने थे। मलबा हटाने के लिए जरूरी केनें तत्काल रवाना हो जानी थीं। और नेताओं की एहसान करने वाली घोषणाओं से पहले वहां राहत पहुंच चुकी होनी थी। मगर ऐसा नहीं हो पाया। कई सौ किलोमीटर तक मार करने वाली मिसाइलें बनाने वाले देश में कुछ सौ किलोमीटर से तत्काल मदद नहीं जा सकी। इसमें इस बात की झलक मिल रही है कि हमारे विकास की दिशा क्या है। विकास का कोई मानवीय चेहरा है कि नहीं विकास क्या विलास के लिए हो रहा है मानवता और सामाजिकता का क्या इससे कोई ताल्लुक नहीं है विकास आदमी को आदमी की और ज्यादा मदद करने के काबिल बनाने के बजाय क्या आदमी को आदमी से दूर कर रहा है गुजरात के इस महाविनाश के बहाने एक बार फिर यह साबित हो गया कि आपदा प्रबंघन नाम की कोई चिड़िया अपने यहां नहीं रहती। देश में भूकंप पहली बार नहीं आया है। देश के कुछ इलाकों में कभी भी भूकंप आ सकता है यह भी सबको मालूम है। देश के कुछ इलाकों में बाढ़ आती रहती है, कुछ इलाकों में तूफान से तबाही होती रहती है। हर बार तबाही पहले जैसी होती है। आग लगने के बाद कुआं खोदना शुरू होता है। अगर गुजरात की इस न्नासदी से कोई बात सीखनी है तो वह यही है कि आपदा प्रबंघन का एक देशव्यापी सशक्त तंन्न हमेशा तैयार रहना जरूरी है। और बाढ़ में, तूफान में, सूखा में, भूकंप में इसकी मदद बगैर किसी औपचारिक बैठक और घोषणा के पीड़ितों तक पहुंचनी चाहिए।

गणतंत्र और गाँधी

सारा देश गणतंत्र दिवस की तैयारियों में लगा हुआ है, देश की राजघानी दिल्ली में और सभी प्रदेशों की राजघानियों में, जिला मुख्यालयों में झंडा फहराने, परेड निकालने की तैयारियां चल रही हैं। दुर्ग जिले के बेमेतरा में भी चल रही होंगी। लेकिन दूसरी ओर वहीं की एक खबर है कि गांघी भवन का इस्तेमाल शौच के लिए हो रहा है। साथ में तस्वीर भी छपी है जिसमंें खंडहर हो चुके भवन में गांघी की प्रतिमा लगी है और उसके आसपास गंदगी फैली हुई है। यह तस्वीर और यह समाचार गांघी को न जानने- मानने वाले को भी मर्माहत करने वाला है। हम गांघी की मूर्तिपूजा के समर्थक नहीं हैं लेकिन देखकर दुख होता है कि जिन लोगों ने उनकी मूर्ति लगाई उन्हें ही इसकी कोई परवाह नहीं है। गांघी की मूर्ति न लगाई होती तो ज्यादा अच्छा होता। इससे पता चलता है कि बेमेतरा मंें गांघी किस हालत में हैं। लोग उन्हें कितना जानते मानते हैं। उनको अपना आदर्श कहने वाली पार्टी के लिए उनका कितना महत्व है।महात्मा गांघी १२५वां जन्मवर्ष समारोह समिति के समन्वयक कनक तिवारी जहां रहते हैं वहां गांघी का यह हाल है। बेमेतरा के जिस गांघी भवन की खबर है वहां पहले एक समृद्घ पुस्तकालय हुआ करता था। पांच हजार किताबें थीं। लोग आते थे, बैठकर पढ़ते थे। कुछ साल तक यह सिलसिला चला। फिर उपेक्षा शुरू हो गयी। कुछ समय तक किसी निजी संस्था ने देखरेख की फिर वह भी बंद हो गया। बिजली कटी, पुस्तकें चोरी गयीं, भवन की छत गिर गयी, यह असामाजिक तत्वों का अड्डा बन गया और अब इस खंडहर का इस्तेमाल शौच के लिए हो रहा है। और यह सिर्फ बेमेतरा का हाल नहीं है। और भी कई शहरों कस्बों में गांघी भवनों की हालत ऐसी ही है। इतनी बुरी नहीं है तो बहुत अच्छी भी नहीं है। अघिकांश गांघी भवन छब्बीस जनवरी, पंद्रह अगस्त, गांघी जयंती पर खुलते हैं या उन्हें खोलने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि उनमंें दरवाजे नहीं हैं। जिन गांघी भवनों में इतनी गंदगी नहीं है वहां दूसरे तरह की गंदगी है-लड़ाई झगड़े हैं, गाली गलौज है, मारपीट है। ऐसे गणतंन्न दिवस का क्या मतलब है जहां राट्रपिता कहे जाने वाले आदमी की ऐसी उपेक्षा हो रही है इसमें गांघी की बेइ्‌ज्जती नहीं हो रही है, गांघी का नुकसान नहीं हो रहा है, नुकसान देश का ही हो रहा है। जिन सिद्घांतों ने देश को अंगेजों के चंगुल से मुक्त कराया, जिस जीवन शैली ने सारे देश में सादगी और सहिणुता की अनुभूति जगाई, जिस साहस ने दंगागस्त क्षेन्नों में जाकर आग बुझाई, यह उसकी उपेक्षा है। गांघी की उपेक्षा का नतीजा है कि आज जनप्रतिनिघि सालोलुप हैं, कार्यकर्ता स्वार्थी हैं, जनता असहिणु है, कमजोर लोग असुरक्षित हैं और देश दिशाहीन सा महसूस करता है। गांघी दूसरों के अभाव को समझते थे, कम कपड़े पहनते थे, उपवास करते थे। आज टेलीविजन देश के करोड़ों लोगों को सिखा चुका है कि उसकी साड़ी आपकी साड़ी से ज्यादा सफेद नहीं होनी चाहिए। आपके घर में ऐसा टीवी होना चाहिए जिससे पड़ोसी ईर्या करें। टीवी यह भी सिखा रहा है कि दीवार पर चूना लगाने वालों का सफेद सीमेंट लगाने वालों से कोई मेल नहीं है। टीवी कपड़े, जूते चमकाना सिखा रहा है, चरिन्न को निखारना कोई नहीं सिखा रहा है। देश के नेतृत्व कर्ता जनता को अघिकार लेना सिखा रहे हैं, लड़कर लेना सिखा रहे हैं, छीन कर लेना सिखा रहे हैं, दूसरों के अघिकारों की परवाह किए बिना, अदालत तक की परवाह किए बिना जो अपना अघिकार लगता है उसे लेना सिखा रहे हैं। कर्तव्य का पालन करना कोई नहीं सिखा रहा है। इसीलिए सब ओर या तो खरीद बिकी चल रही है या छीन झपट चल रही है। लोगों को कर्तव्य याद नहीं हैं, हर कोई अपने अघिकारों की बात कर रहा है। अपने लाभ की बात कर रहा है। देश जब गणतंन्न दिवस मना रहा है तो उसे देखना चाहिए कि इस गणतंन्न की हालत क्या है और क्यों है जनता के लिए जो व्यवस्था बनाई गयी है उससे जनता का कितना हित हो रहा है। यह देखना चाहिए कि जनता के नाम पर जो व्यवस्था बनाई गयी है क्या उसमें शोषकों के चेहरे भर बदल गए हैं क्या उन्हें जनता से, उसके सुख दुख से कोई लेना देना नहीं है जिस तरह गांघी और उनके जमाने के जनप्रतिनिघियों को लेना देना था क्या देश के कर्णघार अपनी जिम्मेदारियों को भूल गए हैं आदशोर्ं को भूल गए हैं बेमेतरा का गांघी भवन एक उदाहरण है इस बात का कि वाकई ऐसा हो रहा है। और यह दुखद है, शर्मनाक है, गलत है। यह गांघी के नाम से जानी जाने वाली कांगेस पार्टी को सोचना चाहिए कि गांघी से दूर होने की वजह से ही क्या उसकी आज हालत खराब है। देश और समाज की हालत के बारे में यह हम सबको सोचना चाहिए।

सोनिया की ऐतिहासिक सभा

मुंगेली में में कांगेस अयक्ष सोनिया गांघी की आमसभा ऐतिहासिक रही है। यह उनकी इस राज्य में पहली सभा थी पर इस इलाके में राज्य बनने से पहले वे कई सभाओं को संबोघित कर चुकी हैं। इनमें से कल की सभा सबसे बड़ी थी। और जहां तक लोगों की याददाश्त जाती है, छीसगढ़ के इतिहास में बहुत कम सभाओं में इतनी ज्यादा भीड़ इकट्ठा हुई है। एक लाख से ज्यादा लोग इस सभा में उपस्थित थे जो राज्य के दूर दूर के इलाकों से आए थे। कुछ लोगों के मुताबिक डेढ़ लाख की भीड़ थी तो कुछ के मुताबिक ढाई तीन लाख की। मगर यह सभा छीसगढ़ की अब तक की चुनी हुई भीड़ भरी सभाओं में थी इस पर लोग एकराय हैं। मरवाही में होने जा रहे उपचुनाव के अलावा राज्य में इस समय कोई विशेष राजनीतिक कारण नहीं है जिसके कारण किसी नेता की आमसभा के प्रति लोगों में इतनी उत्सुकता हो। आमसभाओं में पार्टी की तरफ से लोगों को जुटाया जाता है, इसमें कोई शक नहीं लेकिन फिर भी इतनी भीड़ सिर्फ किसी पार्टी के जुटाए नहीं जुटती। और इतनी बड़ी भीड़ इकट्ठा करने की तैयारियों का कोई हल्ला भी नहीं था। ऐसे मंें सोनिया की सभा में उमड़ी भीड़ को क्या समझा जाए क्या यह उनकी बढ़ती हुई व्यक्तिगत लोकप्रियता का संकेत है क्या यह वाजपेयी सरकार की कम होती लोकप्रियता और जनता के बीच किसी विकल्प की तलाश का संकेत है क्या यह राज्य निर्माण मंें कांगेस की ऐतिहासिक भूमिका के प्रति जनता की भावनाओं की झलक है या यह एक आदिवासी को मुख्यमंन्नी बनाए जाने की प्रतिकिया व्यक्त करने को जुटी भीड़ ही कारण बहुत से हो सकते हैं और हो सकता है कि यह सबका मिला जुला असर हो। लेकिन इस अप्रत्याशित भीड़ के जुटने के पीछे जो कारण हैं वे उत्सुकता और दिलचस्पी तो पैदा करते हैं। कांगेस चाहे तो इसे अपनी, अपनी सरकार की और अपने मुख्यमंन्नी की जनता के बीच छवि और जनता की भावनाओं का प्रकटीकरण मान सकती है। इस बात मंें कोई शक नहीं कि एक आदिवासी को मुख्यमंन्नी बनाकर कांगेस ने एक बड़ा, उत्साह जगाने वाला कदम उठाया है। इससे राज्य की बहुसंख्य उपेक्षित जनता के बीच एक अच्छा संकेत गया है।फिर मुख्यमंन्नी अजीत जोगी ने अपनी प्राथमिकताओं के जरिए भी यह संदेश दिए हैं कि वे कमजोर वगोर्ं के हितों को यान मंें रखकर काम कर रहे हैं। यह राट्रीय स्तर पर कांगेस और सोनिया की बढ़ती लोकप्रियता की झलक भी हो सकती है और परोक्ष रूप से वाजपेयी सरकार की कम होती लोकप्रियता की झलक भी। अटलविहारी वाजपेयी की व्यक्तिगत लोकप्रियता के बारे में तो नहीं लेकिन उनकी सरकार के अब तक के कार्यकाल के बारे में कहा जा सकता है कि इसने जनता की उम्मीदें कम की है। वाजपेयीजी ने हालांकि विपरीत विचारघारा वाले दलों को साथ लेकर इतने लंबे समय तक सरकार चलाई है और यह बात अपने आप में एक उपलब्घि है लेकिन यह भी सच है कि इस सरकार के दलों के बीच आपसी झगड़े बहुत हैं और संघ परिवार के सदस्य देश में जो माहौल बना रहे हैं वह घार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए असुरक्षा पैदा करने वाला है।और इनके प्रति सरकार का रवैया अनुदार नहीं है। सरकार की आर्थिक नीतियां आर्थिक टि से कमजोर लोगों का हित नहीं कर पा रही हैं और एक गठबंघन सरकार के चलते सामाजिक समरसता की जिस संस्कृति को पनपना था वह नहीं पनप रही है। उल्टे नफरत पर आघारित, जनता को तोड़ने वाली संस्कृति को हवा मिल रही है। कांगेस और सोनिया के नेतृत्व पर सशक्त विपक्ष की भूमिका न निभा पाने का आरोप लगाया जाता रहा है लेकिन संगठन चुनावों से एक बार फिर सोनिया गांघी की पार्टी में सर्वोタाता सिद्घ हुई है और विपक्ष की नेता के रूप में उनके तेवर हाल के दिनों में काफी तीखे हुए हैं। जो भी हो, कांगेस के लिए यह भीड़ उत्साहजनक है। अगर वह राज्य में अपनी स्थिति के बारे में इससे कोई संकेत निकालना चाहे तो वह आशाजनक ही होगा। मुख्यमंन्नी और राज्य सरकार अगर इसे अपनी छवि के बारे में कोई संकेत मानें तो वह भी उत्साहवर्घक ही होगा। मगर पार्टी के लिए यह लाभप्रद तब होगा जब वह इस भीड़ को वोटों में तब्दील करना सुनिश्चित कर सके। आमसभाओं में जुटने वाली भीड़ का सीघा मतलब चुनाव में पड़ने वाले वोट नहीं होते। और फिर किसी बड़े चुनाव में अभी वक्त है। कांगेस के लिए यह ऐतिहासिक सभा उत्साह का कारण तो है लेकिन इससे ज्यादा वह एक चुनौती है कि वह अगले चुनावों तक इस कारण को बनाए रखे। उन उम्मीदों को बनाए रखे जिनसे बंघकर जनता इस आमसभा में आई थी।

आईना देखने की जरूरत

राट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मान लिया है कि सिख एक अलग घर्म है। पिछले एक अरसे से यह अभियान चलाया जा रहा था जिसमें सिखों को हिंदू घर्म में शामिल बताया जा रहा था। इसने सिख घार्मिक नेताओं में नाराजगी पैदा कर दी थी। मंदिरों में गुरू गोविंद सिंह का जन्मदिन मनाने की घोषणा भी संघ ने की थी। शिरोमणि गुरूारा प्रबंघक समिति ने इसके प्रति अपना विरोघ दर्ज किया था। बात यहां तक पहुंच गयी थी कि समिति ने अल्पसंख्यक आयोग से सिखों की परिभाषा तय करने के लिए कहा था।इस विवाद के संबंघ में शिरोमणि गुरूारा प्रबंघक समिति के पूर्व अयक्ष गुरचरण सिंह टोहरा और सिमरनजीत सिंह मान ने खूनखराबे की भी चेतावनी दी है। और इतना सब होने के बाद संघ ने कबूल किया है कि सिख एक अलग घर्म है। अल्पसंख्यक आयोग के साथ एक बैठक में उक्त स्वीकारोक्ति की गयी है। संघ के प्रतिनिघियों ने इस बैठक में स्पट किया है कि सिख घर्म की पहचान मिटाने या उसकी संस्कृति के साथ खिलवाड़ करने की कोई मंशा उनकी नहीं है और अगर इसके बाद भी किसी शक की गुंजाइश रह गयी हो तो वे चर्चा कर उसे दूर करने के लिए तैयार हैं। ऐसा कुछ कभी न कभी तो होना ही था। भारतीय जनता पार्टी ने जब हिंदुत्व की भावना को एक लाभप्रद चुनावी एजेंडा के रूप में पाया और हिंदूवादी लोगों को अपना वोट बैंक मानकर काम करना शुरू किया तो संघ परिवार के सभी संगठनों ने अपने-अपने ढंग से हिंदूवादी भावनाओं को आकामक ढंग से उभारना शुरू कर दिया। और एक छोटा सा दौर आया जब देश के बड़े इलाके में यह भावना एक ज्वार की तरह उभरी। यही दौर भाजपा के विस्तार का था और अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए संघ परिवार के सदस्यों ने यह भी हिंदू, वह भी हिंदू का जो प्रचार अभियान चलाया उससे वे सब लोग सहमत नहीं थे जिन्हें वह हिंदू करार दे रहे थे। सिखों की तरफ से व्यक्त हुआ यह विरोघ उसी असहमति का प्रकटीकरण है। हमारी राय में यह संघ की उस कार्यप्रणाली का विरोघ है जिसके चलते वह अपने विचार दूसरों पर थोप देना चाहता है। इसी के चलते उसने कई घमोर्ं संप्रदायों को हिंदू में शामिल कर लिया। शायद इस अपेक्षा में कि उसकी दी गयी परिभाषाएं चुपचाप मान ली जाएंगी, उसकी दी गयी व्यवस्था को चुपचाप स्वीकार कर लिया जाएगा। विरोघ तब भी व्यक्त हुआ था, जैन, बौद्घ, आदिवासी समुदायों की ओर से विरोघ सामने आया था और सिखों की तरफ से भी। मगर जब संघ ने अभियान जारी रखा तो यह विरोघ अघिक मुखर होकर उभरा है। भारत में घर्म अैार संस्कृति को लेकर बड़ी गहरी समझ रही है और इसलिए बड़ी उदार और व्यापक व्यवस्था भी इस संबंघ में रही है जो वसुघैव कुटुम्बकम और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व जैसे मुहावरों में झलकती रही है। यहां विविघ घर्म संप्रदायों के लोग रहते हैं और अपनी-अपनी आजादी के साथ रहते हैं। इसी आजादी के चलते लोग एक दूसरे के घर्म-संस्कृति का सम्मान करते हैं। इस विविघता को इस देश ने अपनी विशिटता समझा है जबकि संघ की विचारघारा में इस विविघता के बारे में एक अलग ही नजरिया देखने में आता है।इस नजरिए की बुनियाद में असहिणुता है। और अपनी बनाई परिभाषाएं थोप देने की इच्छा है। हमारी राय है कि संघ को करना ही है तो करने को बहुत से काम हैं। समाज में बहुत सारी विसंगतियां हैं। आर्थिक विसंगतियां हैं, सामाजिक विसंगतियां हैं। जातीय भेदभाव और ेष है, वर्गगत भेदभाव और ेष है। मनुय मनुय में फर्क करने वाली सोच विद्यमान है। दहेज हत्याएं बहुत हो रही हैं, युवा पी.ढी बेरोजगारी की शिकार है, अत्याचार और भी बहुत रूपों में मौजूद है। इन विसंगतियों को मिटाना अघिक जरूरी है। देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों को हिंदू करार देने में संघ जितनी ऊर्जा व्यय कर रहा है उसे वह उससे ज्यादा उपयोगी कामों में व्यय कर सकता है। किसी पर कोई विचार थोप क्यों दिया जाना चाहिए किसी पर कोई जीवन शैली थोप क्यों देनी चाहिए किसी पर किसी घार्मिक आस्था को मानने की बायता क्यों थोप देनी चाहिए अपनी निजी मान्यताओं के बारे में व्यक्ति को पूरी स्वतंन्नता होनी चाहिए और उसे उसके ऐसे प्रकटीकरण की भी आजादी होनी चाहिए जिससे दूसरों की भावनाओं को ठेस न पहुंचे, दूसरों के हितों को ठेस न पहुंचे। हमारे देश के संविघान में इस आजादी का स्पट प्रावघान है और इस आजादी का दुरूपयोग न हो इस बात का यान रखने के लिए भी हमारे पास पर्याप्त प्रावघान हैं। संविघान की मूल भावना का आदर किया जाए तो हर इंसान घर्म जैसी अपनी व्यक्तिगत आस्था की चीज के मामले में स्वतंन्न रह सकता है और उसे दूसरों को भी यह स्वतंन्नता देनी चाहिए। लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए संविघान की मूल भावना की अवहेलना होती है। उसकी समीक्षा और उसे बदलने की बातें की जाती हैं। जबकि जरूरत आईने में अपना चेहरा देखने की है। आकामक होकर किसी पर कुछ भी थोप दिया जा सकता है इस मुगालते को भूलने की जरूरत है।जैसे उमा भारती भूल रही हैं कि बाबरी मस्जिद के वंस के समय उन्होंने क्या-क्या कहा

एड्‌स के खिलाफ

विश्व एडस दिवस पर संयुक्त राट्र एड्‌स कार्यकम ने जो आंकड़े जारी किए हैं वे चौंकाने वाले हैैंं। इनके मुताबिक अब तक इस महामारी से सारी दुनिया में २ करोड़ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। इनमें ४३ लाख बタो हैं और ९० लाख महिलाएं भी। इस साल इस बीमारी ने ५३ लाख नए लोगों को अपनी चपेट में लिया है और ३० लाख लोग इससे मरे हैं। भारत में भी यह रोग चिंताजनक ढंग से फैल रहा है। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित राज्यों में से एक महाराट्र के बारे में जारी एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक यहां एचआईवी से गस्त लोगों की संख्या ८० हजार से ज्यादा है और जिस तेजी से देश भर में यह बीमारी बढ़ रही है, उससे छः गुना ज्यादा रफ्तार से यह महाराट्र में बढ़ रही है। मुम्बई में जाहिर है कि यह बीमारी और ज्यादा गंभीर रूप से बढ़ रही है। १९८६ के बाद से यहां ८० हजार लोग वाइरस से प्रभावित पाए गए हैं, ४ हजार एड्‌स पीड़ित करार दिए गए हैं और सैकड़ों मौतें इससे हो चुकी हैं। भारत में एक आकलन के मुताबिक इस साल के अंत तक वाइरस प्रभावितों की संख्या ५० लाख तक पहुंच जाने की आशंका है। पिछले साल यह संख्या ३७ लाख थी और इस रोग से मरने वालों की संख्या ३ लाख से ज्यादा थी। सारी दुनिया में पिछले साल एचआईवी प्रभावित लोगों की संख्या करीब साढ़े तीन करोड़ थी। और इसके बढ़ने की दर का अनुमान इस आकलन से लगाया जा सकता है कि हर मिनट ५ नौजवान एचआईवी से प्रभावित हो रहे हैं। और इसके बावजूद हाल यह है कि आम आदमी को इस रोग की गंभीरता का अहसास नहीं है। गैर पढ़े लिखे आदमी की बात तो समझ में आती है, पढ़े लिखे लोगों को भी एड्‌स के बारे में थोड़ी सी पढ़ी हुई जानकारी है लेकिन इसकी गंभीरता के बारे में उनमें से भी कम लोग सोचते हैं। यह बीमारी बढ़ते बढ़ते सबके लिए खतरा बन सकती है, इसे रोकना एक सामाजिक जवाबदारी है, ऐसा सोचने वालों की संख्या शायद एड्‌सगस्त लोगों से भी कम है। किसी को एड्‌स हो गया तो उससे दूर भागना अलबा सबको आता है। एड्‌स के बारे में एक चिंताजनक बात यह है कि बタाों को भी इसने प्रभावित किया है। एड्‌सगस्त मां बाप के कारण हो चाहे इंजेक्शन देते वक्त हुए संकमण के कारण हो चाहे यौन शोषण के शिकार होने के कारण हो, बタो जिस बड़ी संख्या में इससे प्रभावित हैं वह नजरअंदाज करने लायक नहीं है। रोजी रोटी की समस्या से जूझते समाज को एड्‌स के खतरे के बारे में बताना, समझाना मुश्किल हैे। लेकिन ऐसा नहीं कि कुछ किया ही नहीं जा सकता और कुछ किया ही नहीं जाना चाहिए। जिन लोगों को एड्‌स अपना शिकार बना रहा है उस वर्ग के लोगों को एड्‌स के बचाव के उपायों से लैस किया जाना, एड्‌स से बचाव की दिशा में एक कदम हो सकता है। और इस राह में एक बहुत बड़ा रोड़ा है सेक्स के बारे में भारतीय जनमानस की दकियानूसी। यह दकियानूसी हमें बタाों को यौन शिक्षा देने से रोकती है। स्कूल ही नहीं कॉलेज के विद्यार्थियों को भी यह शिक्षा देने की बात पर विरोघ करने वाले उठ खड़े होते हैं। सही शिक्षा के अभाव में बタो गलत सलत जानकारियों के साथ जीते हैं और दुर्घटनाआंें का शिकार होते हैं। हमारा मानना है कि कタाी उम के नौजवानों को यौन शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वे असुरक्षित सेक्स से होने वाले नुकसानों के बारे में जागरूक हो सकें। और यही नहीं, उन्हें समाज के कम जागरूक तबकों में जानकारियां फैलाने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जो काम मुट्ठी भर समाज सेवी संस्थाएं कर रही हैं उनमें अगर कॉलेज के नौजवानों की हिस्सेदारी हो जाए तो एक प्रभावी जनजागरण आंदोलन पैदा हो सकता है। नौजवानों को तो अघिक आसानी से सुरक्षित बनाया जा सकता है, लेकिन बタाों को इस रोग की चपेट में आने से बचाना कठिन है। कुछ तो मां बाप के एड्‌स गस्त होने का नतीजा भुगतते हैं तो कुछ यौन शोषण का। यहां भी हमारी दकियानूसी आड़े आती है। वो इस तरह कि हम यह मानने से इनकार कर देते हैं कि इस तरह की घटनाएं हमारे परिवार में, समाज में हो रही हैं और इनमें बタो के परिचित और निकट के रिश्तेदार ही गुनाहगार हैं। बタाों के पालकों को अपनी इस शुतुरमुर्गी सोच से निकलना होगा। बल्कि स्कूली बच्चों को भी कैसे यौन हमलों के खिलाफ तैयार किया जा सकता है इसके लिए मनोवैानिकों की सलाह से कोशिश की जानी चाहिए। सरकारी एजेंसियां भी एड्‌स और यौन रोगांें के खिलाफ जनजागरण अभियान चलाती तो हैं, वे अपेक्षित प्रभाव पैदा क्यों नहीं कर पा रही हैं इस बारे में सोचा जाना चाहिए।