गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010
इनका दुख भी पूछें
भटाचार का खेल जारी
किकेट के बेन जानसन
स्थिरता से बड़ी जिम्मेदारी
संकट मोचन कहां थे
गणतंत्र और गाँधी
सारा देश गणतंत्र दिवस की तैयारियों में लगा हुआ है, देश की राजघानी दिल्ली में और सभी प्रदेशों की राजघानियों में, जिला मुख्यालयों में झंडा फहराने, परेड निकालने की तैयारियां चल रही हैं। दुर्ग जिले के बेमेतरा में भी चल रही होंगी। लेकिन दूसरी ओर वहीं की एक खबर है कि गांघी भवन का इस्तेमाल शौच के लिए हो रहा है। साथ में तस्वीर भी छपी है जिसमंें खंडहर हो चुके भवन में गांघी की प्रतिमा लगी है और उसके आसपास गंदगी फैली हुई है। यह तस्वीर और यह समाचार गांघी को न जानने- मानने वाले को भी मर्माहत करने वाला है। हम गांघी की मूर्तिपूजा के समर्थक नहीं हैं लेकिन देखकर दुख होता है कि जिन लोगों ने उनकी मूर्ति लगाई उन्हें ही इसकी कोई परवाह नहीं है। गांघी की मूर्ति न लगाई होती तो ज्यादा अच्छा होता। इससे पता चलता है कि बेमेतरा मंें गांघी किस हालत में हैं। लोग उन्हें कितना जानते मानते हैं। उनको अपना आदर्श कहने वाली पार्टी के लिए उनका कितना महत्व है।महात्मा गांघी १२५वां जन्मवर्ष समारोह समिति के समन्वयक कनक तिवारी जहां रहते हैं वहां गांघी का यह हाल है। बेमेतरा के जिस गांघी भवन की खबर है वहां पहले एक समृद्घ पुस्तकालय हुआ करता था। पांच हजार किताबें थीं। लोग आते थे, बैठकर पढ़ते थे। कुछ साल तक यह सिलसिला चला। फिर उपेक्षा शुरू हो गयी। कुछ समय तक किसी निजी संस्था ने देखरेख की फिर वह भी बंद हो गया। बिजली कटी, पुस्तकें चोरी गयीं, भवन की छत गिर गयी, यह असामाजिक तत्वों का अड्डा बन गया और अब इस खंडहर का इस्तेमाल शौच के लिए हो रहा है। और यह सिर्फ बेमेतरा का हाल नहीं है। और भी कई शहरों कस्बों में गांघी भवनों की हालत ऐसी ही है। इतनी बुरी नहीं है तो बहुत अच्छी भी नहीं है। अघिकांश गांघी भवन छब्बीस जनवरी, पंद्रह अगस्त, गांघी जयंती पर खुलते हैं या उन्हें खोलने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि उनमंें दरवाजे नहीं हैं। जिन गांघी भवनों में इतनी गंदगी नहीं है वहां दूसरे तरह की गंदगी है-लड़ाई झगड़े हैं, गाली गलौज है, मारपीट है। ऐसे गणतंन्न दिवस का क्या मतलब है जहां राट्रपिता कहे जाने वाले आदमी की ऐसी उपेक्षा हो रही है इसमें गांघी की बेइ्ज्जती नहीं हो रही है, गांघी का नुकसान नहीं हो रहा है, नुकसान देश का ही हो रहा है। जिन सिद्घांतों ने देश को अंगेजों के चंगुल से मुक्त कराया, जिस जीवन शैली ने सारे देश में सादगी और सहिणुता की अनुभूति जगाई, जिस साहस ने दंगागस्त क्षेन्नों में जाकर आग बुझाई, यह उसकी उपेक्षा है। गांघी की उपेक्षा का नतीजा है कि आज जनप्रतिनिघि सालोलुप हैं, कार्यकर्ता स्वार्थी हैं, जनता असहिणु है, कमजोर लोग असुरक्षित हैं और देश दिशाहीन सा महसूस करता है। गांघी दूसरों के अभाव को समझते थे, कम कपड़े पहनते थे, उपवास करते थे। आज टेलीविजन देश के करोड़ों लोगों को सिखा चुका है कि उसकी साड़ी आपकी साड़ी से ज्यादा सफेद नहीं होनी चाहिए। आपके घर में ऐसा टीवी होना चाहिए जिससे पड़ोसी ईर्या करें। टीवी यह भी सिखा रहा है कि दीवार पर चूना लगाने वालों का सफेद सीमेंट लगाने वालों से कोई मेल नहीं है। टीवी कपड़े, जूते चमकाना सिखा रहा है, चरिन्न को निखारना कोई नहीं सिखा रहा है। देश के नेतृत्व कर्ता जनता को अघिकार लेना सिखा रहे हैं, लड़कर लेना सिखा रहे हैं, छीन कर लेना सिखा रहे हैं, दूसरों के अघिकारों की परवाह किए बिना, अदालत तक की परवाह किए बिना जो अपना अघिकार लगता है उसे लेना सिखा रहे हैं। कर्तव्य का पालन करना कोई नहीं सिखा रहा है। इसीलिए सब ओर या तो खरीद बिकी चल रही है या छीन झपट चल रही है। लोगों को कर्तव्य याद नहीं हैं, हर कोई अपने अघिकारों की बात कर रहा है। अपने लाभ की बात कर रहा है। देश जब गणतंन्न दिवस मना रहा है तो उसे देखना चाहिए कि इस गणतंन्न की हालत क्या है और क्यों है जनता के लिए जो व्यवस्था बनाई गयी है उससे जनता का कितना हित हो रहा है। यह देखना चाहिए कि जनता के नाम पर जो व्यवस्था बनाई गयी है क्या उसमें शोषकों के चेहरे भर बदल गए हैं क्या उन्हें जनता से, उसके सुख दुख से कोई लेना देना नहीं है जिस तरह गांघी और उनके जमाने के जनप्रतिनिघियों को लेना देना था क्या देश के कर्णघार अपनी जिम्मेदारियों को भूल गए हैं आदशोर्ं को भूल गए हैं बेमेतरा का गांघी भवन एक उदाहरण है इस बात का कि वाकई ऐसा हो रहा है। और यह दुखद है, शर्मनाक है, गलत है। यह गांघी के नाम से जानी जाने वाली कांगेस पार्टी को सोचना चाहिए कि गांघी से दूर होने की वजह से ही क्या उसकी आज हालत खराब है। देश और समाज की हालत के बारे में यह हम सबको सोचना चाहिए।
सोनिया की ऐतिहासिक सभा
मुंगेली में में कांगेस अयक्ष सोनिया गांघी की आमसभा ऐतिहासिक रही है। यह उनकी इस राज्य में पहली सभा थी पर इस इलाके में राज्य बनने से पहले वे कई सभाओं को संबोघित कर चुकी हैं। इनमें से कल की सभा सबसे बड़ी थी। और जहां तक लोगों की याददाश्त जाती है, छीसगढ़ के इतिहास में बहुत कम सभाओं में इतनी ज्यादा भीड़ इकट्ठा हुई है। एक लाख से ज्यादा लोग इस सभा में उपस्थित थे जो राज्य के दूर दूर के इलाकों से आए थे। कुछ लोगों के मुताबिक डेढ़ लाख की भीड़ थी तो कुछ के मुताबिक ढाई तीन लाख की। मगर यह सभा छीसगढ़ की अब तक की चुनी हुई भीड़ भरी सभाओं में थी इस पर लोग एकराय हैं। मरवाही में होने जा रहे उपचुनाव के अलावा राज्य में इस समय कोई विशेष राजनीतिक कारण नहीं है जिसके कारण किसी नेता की आमसभा के प्रति लोगों में इतनी उत्सुकता हो। आमसभाओं में पार्टी की तरफ से लोगों को जुटाया जाता है, इसमें कोई शक नहीं लेकिन फिर भी इतनी भीड़ सिर्फ किसी पार्टी के जुटाए नहीं जुटती। और इतनी बड़ी भीड़ इकट्ठा करने की तैयारियों का कोई हल्ला भी नहीं था। ऐसे मंें सोनिया की सभा में उमड़ी भीड़ को क्या समझा जाए क्या यह उनकी बढ़ती हुई व्यक्तिगत लोकप्रियता का संकेत है क्या यह वाजपेयी सरकार की कम होती लोकप्रियता और जनता के बीच किसी विकल्प की तलाश का संकेत है क्या यह राज्य निर्माण मंें कांगेस की ऐतिहासिक भूमिका के प्रति जनता की भावनाओं की झलक है या यह एक आदिवासी को मुख्यमंन्नी बनाए जाने की प्रतिकिया व्यक्त करने को जुटी भीड़ ही कारण बहुत से हो सकते हैं और हो सकता है कि यह सबका मिला जुला असर हो। लेकिन इस अप्रत्याशित भीड़ के जुटने के पीछे जो कारण हैं वे उत्सुकता और दिलचस्पी तो पैदा करते हैं। कांगेस चाहे तो इसे अपनी, अपनी सरकार की और अपने मुख्यमंन्नी की जनता के बीच छवि और जनता की भावनाओं का प्रकटीकरण मान सकती है। इस बात मंें कोई शक नहीं कि एक आदिवासी को मुख्यमंन्नी बनाकर कांगेस ने एक बड़ा, उत्साह जगाने वाला कदम उठाया है। इससे राज्य की बहुसंख्य उपेक्षित जनता के बीच एक अच्छा संकेत गया है।फिर मुख्यमंन्नी अजीत जोगी ने अपनी प्राथमिकताओं के जरिए भी यह संदेश दिए हैं कि वे कमजोर वगोर्ं के हितों को यान मंें रखकर काम कर रहे हैं। यह राट्रीय स्तर पर कांगेस और सोनिया की बढ़ती लोकप्रियता की झलक भी हो सकती है और परोक्ष रूप से वाजपेयी सरकार की कम होती लोकप्रियता की झलक भी। अटलविहारी वाजपेयी की व्यक्तिगत लोकप्रियता के बारे में तो नहीं लेकिन उनकी सरकार के अब तक के कार्यकाल के बारे में कहा जा सकता है कि इसने जनता की उम्मीदें कम की है। वाजपेयीजी ने हालांकि विपरीत विचारघारा वाले दलों को साथ लेकर इतने लंबे समय तक सरकार चलाई है और यह बात अपने आप में एक उपलब्घि है लेकिन यह भी सच है कि इस सरकार के दलों के बीच आपसी झगड़े बहुत हैं और संघ परिवार के सदस्य देश में जो माहौल बना रहे हैं वह घार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए असुरक्षा पैदा करने वाला है।और इनके प्रति सरकार का रवैया अनुदार नहीं है। सरकार की आर्थिक नीतियां आर्थिक टि से कमजोर लोगों का हित नहीं कर पा रही हैं और एक गठबंघन सरकार के चलते सामाजिक समरसता की जिस संस्कृति को पनपना था वह नहीं पनप रही है। उल्टे नफरत पर आघारित, जनता को तोड़ने वाली संस्कृति को हवा मिल रही है। कांगेस और सोनिया के नेतृत्व पर सशक्त विपक्ष की भूमिका न निभा पाने का आरोप लगाया जाता रहा है लेकिन संगठन चुनावों से एक बार फिर सोनिया गांघी की पार्टी में सर्वोタाता सिद्घ हुई है और विपक्ष की नेता के रूप में उनके तेवर हाल के दिनों में काफी तीखे हुए हैं। जो भी हो, कांगेस के लिए यह भीड़ उत्साहजनक है। अगर वह राज्य में अपनी स्थिति के बारे में इससे कोई संकेत निकालना चाहे तो वह आशाजनक ही होगा। मुख्यमंन्नी और राज्य सरकार अगर इसे अपनी छवि के बारे में कोई संकेत मानें तो वह भी उत्साहवर्घक ही होगा। मगर पार्टी के लिए यह लाभप्रद तब होगा जब वह इस भीड़ को वोटों में तब्दील करना सुनिश्चित कर सके। आमसभाओं में जुटने वाली भीड़ का सीघा मतलब चुनाव में पड़ने वाले वोट नहीं होते। और फिर किसी बड़े चुनाव में अभी वक्त है। कांगेस के लिए यह ऐतिहासिक सभा उत्साह का कारण तो है लेकिन इससे ज्यादा वह एक चुनौती है कि वह अगले चुनावों तक इस कारण को बनाए रखे। उन उम्मीदों को बनाए रखे जिनसे बंघकर जनता इस आमसभा में आई थी।