बुधवार, 28 मार्च 2012

बारिश मुझे माफ करना



आज जमकर बारिश हुई। बाहर निकलने का मन हुआ। मगर निकल न सका।
भीगना चाहता था मगर किससे कहता।
कहता तो सुनने को मिलता -बीमार पड़ जाओगे। पागल हो क्या। क्या मिलेगा बारिश में भीगकर। भीगो, हमें क्या करना है।

एक बार जमकर भीगा था बारिश में। दोस्त को उसके घर छोडऩे गया था। लौटा तो जबरदस्त पानी था। मैंने तय किया कि कहीं रुकूंगा नहीं। रास्ते भर भीगते गया। इतनी देर तक, इतने बड़े फव्वारे के नीचे कभी नहीं नहाया था। यह एक ऐसा अनुभव था जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। आसमान मुझे नहला रहा था। पेड़ मेरे साथ नहा रहे थे। धरती मेरे साथ नहा रही थी। मैंने पहली बार जाना कि प्रकृति कितनी विराट और उदार है।

मैं फुटबॉल खेलते हुए भी खूब भीगा हूं। बारिश में खेल रुकता नहीं था। घास के मैदान में छप छप करते खेलते रहते थे। वे दिन बहुत पीछे छूट गए। हमने बारिश के पानी में कागज की कश्तियां भी बहुत चलायी हैं। उन दिनों की भी धुंधली सी यादें ही रह गयी हैं।

कभी हम लोग कच्ची छत वाले मकान में रहते थे। बारिश के दिनों में छत टपकती थी। सामान इधर से उधर करना पड़ता था। जहां जहां पानी टपकता था, नीचे खाली बर्तन रखने पड़ते थे। बिस्तर पर पानी टपकता था और सोना मुश्किल हो जाता था। पक्की छत के नीचे रहते हुए अब उन दिनों की याद भी नहीं आती।

आज भी बारिश में भीगने का मन जरूर होता है लेकिन मन मसोस कर रह जाना पड़ता है। साथ साथ भीगने वाले दोस्त अब साथ नहीं रहे। नौकरी ऐसी है कि कई बार दफ्तर से बाहर निकलकर पता चलता है कि जबरदस्त बारिश हो चुकी है। बच्चों को बारिश में खेलते देखकर खुश होने वाले बुजुर्ग भी अब नहीं रहे। बारिश अब भी होती है। हमीं घर से बाहर नहीं निकल पाते।

केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता में कहा गया है कि सूरज डूबता नहीं है। घूमती हुई पृथ्वी खुद उसकी ओर से मुंह फेर लेती है। मेरे खयाल से हम सब ऐसे ही हैं। आसपास खुशियां बरसती रहती हैं और हमसे दामन तक नहीं फैलाया जाता।

बारिश के बहुत से दृश्य मैंने सिर्फ अखबारों में देखे हैं। मेरा शहर नदी के किनारे है मगर मैंने आज तक उमड़ती हुई नदी नहीं देखी। मेरा इलाका किसानों का है और मैंने कभी पानी से भरे धान के खेतों में काम नहीं किया। मेरे शहर की कई बस्तियां इस बार भी बारिश के पानी में डूब जाएंगी पर मैं उन्हें नहीं देख पाऊंगा।

बारिश के बारे में कहने के लिए मेरे पास बहुत बातें नहीं हैं। जिसने बारिश को ज्यादातर अपनी खिडक़ी से देखा हो वह उसके बारे में और कितना जान सकता है?

(कई साल पहले बारिश को देखते हुए लिखा गया)

बुधवार, 9 जून 2010

प्यार में भीगा मौसम

यात्रा का अंतिम चरण जशपुर में पूरा हुआ। जिन लोगों ने पहले जशपुर नहीं देखा था, उन्हें बताया गया था कि यह बेहद खूबसूरत इलाका है। पहाड़ों और झरनों से भरपूर। लोगों ने गलत नहीं बताया था। कुछ लोगों ने पहली बार पर्वतों को चूमते बादल देखे। यह दृश्य अद्भुत होता है। कुछ कुछ ऐसा मानो चाय के प्याले से भाप उठ रही हो। पर्वतों की श्रंृखलाएं यात्रियों का स्वागत करते चलती हैं। गहरी गहरी घाटियां प्रकृति के विराट स्वरूप के दर्शन कराती हैं।
यात्रा एक बेहद खूबसूरत मौसम में जशपुर इलाके से गुजरी। यह बारिश से भीगा मौसम था, चारो ओर हरियाली छाई थी, चिलचिलाती धूप और लू का नामोनिशान नहीं था। यात्रा के पहले चरण में अगर धूप के बावजूद हजारों लोग सभाओं में जुटते रहे तो अंतिम चरण में उन्होंने बारिश की परवाह नहीं की। बस्तर की यादें ताजा हो गईं।
मनेंद्रगढ़ में लोगों को अपेक्षा थी कि मनेंद्रगढ़ को कोरिया जिले का मुख्यालय घोषित किया जाएगा। यह इस इलाके की पुरानी मांग है। मुख्यमंत्री ने उन्हें बताया कि यह फिलहाल प्रक्रिया में नहीं है। इससे लोगों में निराशा थी लेकिन साफ बात यह थी कि उन्हें कोई गलत आश्वासन नहीं मिला था।
मनेंद्रगढ़ से आगे बढ़ते ही बारिश शुरू हो गई। लगा कि आगे की सभाओं का क्या होगा? मगर  सभाओं के दौरान अमूमन बारिश रुक जाती रही।  हल्की फुल्की बौछारों की तो लोगों ने वैसे भी परवाह नहीं की।
मुख्यमंत्री से यह सवाल लगातार किया जाता रहा कि उनकी सभाओं में जो भीड़ जुट रही है, क्या वह सरकारी तंत्र द्वारा जुटाई गई भीड़ नहीं है? मनेंद्रगढ़ से बैकुंठपुर के बीच एक पत्रकार ने उनसे यही सवाल किया। मुख्यमंत्री ने याद दिलाया कि यात्रा का स्वागत निर्धारित जगहों पर ही नहीं हो रहा, रास्ते में भी जगह जगह लोग उनसे मिल रहे हैं और यात्रा का स्वागत कर रहे हैं। सरकार की योजनाओं को जो समर्थन मिल रहा है वह लोगों की संख्या ही से नहीं, उनके उत्साह से भी प्रकट होता है। लोग जिस गर्मजोशी से उनसे मिल रहे हैं, वह जुटाई गई भीड़ की गर्मजोशी नहीं है। मुख्यमंत्री का कहना था कि उन्होंने बहुत सी यात्राएं देखी हैं और की भी हैं। लेकिन ऐसा उत्साह पहली बार देख रहे हैं।
मुख्यमंत्री से और भी तरह तरह के सवाल किए जाते रहे। भटगांव में पत्रवार्ता में उनसे पूछा गया कि प्रदेश सरकार बहुत सी जनकल्याणकारी योजनाओं पर जो पैसा खर्च कर रही है, वह तो केंद्र सरकार का है? मुख्यमंत्री ने कहा- पैसा न तेरा है न मेरा है, वह जनता का है और उसी के लिए खर्च किया जा रहा है। योजनाओं के क्रियान्वयन के संबंध में मिल रही छोटी बड़ी शिकायतों के सवाल पर उन्होंने चुटकी ली- शिकायतें तो राम राज्य में भी थीं, यह तो रमन राज है। फिर उन्होंने कहा- हम हालात को बेहतर करने की कोशिश करते आ रहे हैं, आगे भी करते रहेंगे।
तीन रुपया किलो चावल वाली योजना भाजपा सरकार की सबसे लोकप्रिय योजना के रूप में सामने आई। पूरी यात्रा के दौरान एक भी इलाका ऐसा नहीं मिला जहां इस योजना का लाभ नहीं पहुंच रहा है। पात्र लोगों के कार्ड न बनने और अपात्रों के नाम सूची में होने की शिकायतें जरूर मिलती रहीं लेकिन मुख्यमंत्री इसे स्वीकारते रहे और उन्होंने कहा कि इसे ठीक करने के लिए कहा जा चुका है। विपक्ष के कुछ नेताओं ने इस योजना को गरीबों का अपमान कहा है- इस पर पूरी यात्रा के दौरान डा. रमन सिंह चोट करते रहे। रिमझिम बारिश के बीच बैकुंठपुर की सभा में भी ्रउन्होंने कहा कि तीन रुपया किलो में चावल पाना जनता का अपमान नहीं, उसका हक है। यहां के लोग जमकर मेहनत करते हैं और जमकर खाना उनका अधिकार है।
कांग्रेस को वे लगातार कटघरे में खड़ा करते रहे। उन्होंने हर सभा में दावा किया कि ज्यादातर कांग्रेस के नेतृत्व वाले पिछले पचास बरस को देखें और पिछले साढ़े चार साल में छत्तीसगढ़ में होने वाले विकास को देखें तो पचास बरस पर साढ़े चार बरस में हुआ विकास भारी पड़ेगा।
जशपुर के घने जंगलों और पर्वतों-घाटियों के बीच से जब यात्रा गुजर रही थी तो सड़क किनारे आम बेचती चार महिलाओं से हमारी बात हुई। सरकार की कई जनकल्याणकारी योजनाओं से वे वाकिफ थीं। उनमें से कुछ ने स्कूल की पढ़ाई की थी। उनकी राजनीतिक चेतना के हम कायल हुए। उनसे पिछले और अभी के मुख्यमंत्री की तुलना करने को कहा गया तो उन्होंने कोई सीधा जवाब नहीं दिया। एक बोली-मुख्यमंत्री को अच्छा काम करना ही चाहिए। इसीलिए तो वे मुख्यमंत्री बनाए जाते हैं। एक और मौके पर एक तेज तर्रार बूढ़े ने कहा- सवा तीन रुपए मेंं सरकार चल रही है। उसका आशय तीन रुपया किलो चावल और पचीस पैसे किलो नमक से था। सरकार के कामकाज को लेकर ऐसी प्रतिक्रियाएं हमें रास्ते भर सुनने को मिलती रहीं। तीन रुपया किलो चावल हमें लगा कि सबसे लोकप्रिय योजना है। इसके हितग्राही प्रदेश के कोने कोने में हैं। यह जनता के लिए बहुत उपयोगी है। कोई भी गरीब परिवार इसे पाकर खुश ही होगा।
जशपुर में हम सभा से पहले पहुंच गए। सभास्थल की ओर जाने वाली सड़क विकास यात्रा के स्वागत के लिए सजी धजी हुई थी। हल्की बारिश हो रही थी, सड़क पर दूर तक छतरियां ही छतरियां दिखाई दे रही थीं। जितने लोग छतरियां लेकर खड़े थे, उनसे कई गुना ज्यादा लोग बगैर छतरियों के जमे हुए थे। दर्जनों नर्तक दल बारिश में भीगते हुए नाच रहे थे। बीस बीस किलो के नगाड़े गर्दन से लटकाए वादक पूरे जोश से उन्हें बजा रहे थे। यात्रा के आने में करीब घंटे भर की देर थी। और लोगों ने बताया कि नाच गान का यह सिलसिला सुबह से चल रहा है। सभा स्टेडियम में होनी थी। हमें लगा कि बारिश और देरी की वजह से शायद कम ही लोग रहेंगे। लेकिन हजारों लोग वहां मौजूद थे। एक पुलिसवाले ने बताया कि ये लोग सुबह से जमा हैं। कुछ तो रात में ही आ गए थे। पुलिसवाला खुद दोपहर से खड़ा था।
विकास यात्रा सभा स्थल पर पहुंची तो स्टेडियम में भीड़ बढऩे लगी। मैदान और गैलरियां खचाखच भर गईं। मंच पर उपस्थित नेताओं की खुशी उनके संबोधनों में झलकी। सबने लोगों के इस प्यार और समर्थन की प्रशंसा की, इसके लिए धन्यवाद दिया। रविशंकर प्रसाद, दिलीपसिंह जूदेव, राजनाथ सिंह और सबसे आखिर में डा. रमन सिंह बोले। राष्टï्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह विकास यात्रा को मिले इस प्यार और समर्थन को देखकर अभिभूत थे। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में पैसे की नहीं, पसीने की इज्जत होनी चाहिए, प्रदेश सरकार यही कर रही है और इसीलिए जनता का इतना प्यार मिल रहा है। देश के दूसरे प्रदेशों की तुलना में छत्तीसगढ़ में हो रहे विकास को उन्होंने बेजोड़ बताया और यह भी कह डाला कि एक मुख्यमंत्री के रूप में डा. रमन सिंह उनसे भी बेहतर काम कर रहे हैं। उन्होंने महंगाई का मुद्दा उठाया और याद दिलाया कि अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में, विषम परिस्थितियों में भी महंगाई नियंत्रित थी। अगर महंगाई पर लगाम लगानी है तो केंद्र में एक बार फिर भाजपा की सरकार बनानी होगी, लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाना होगा और प्रदेश में यह विकास यात्रा निरंतर चलती रहे, इसके लिए डा. रमन सिंह को एक बार फिर मुख्यमंत्री बनाना होगा। अंचल के लोकप्रिय नेता दिलीप सिंह जूदेव जब भाषण देने के लिए खड़े हुए तो स्टेडियम जय जूदेव के नारों से गूंज उठा। वैसे तो उनकी लोकप्रियता छत्तीसगढ़ के हर इलाके में है लेकिन जशपुर में बात ही कुछ और है। श्री जूदेव ने भी डा. रमन सिंह की संवेदनशीलता और उदारता की तारीफ की। उन्होंने बताया कि जशपुर से जितनी बार मुख्यमंत्री के दरबार में फरियादें पहुंचीं, मुख्यमंत्री ने कभी निराश नहीं किया।
दूसरे दिन पे्रस कांफ्रेंस के बाद हम लौटे। रास्ते भर विकास यात्रा के दृश्य याद आते रहे। और मुख्यमंत्री के शब्द कानों में गूंजते रहे कि प्रदेश में विकास की यात्रा यहीं थमने वाली नहीं है। यह पिछले साढ़े चार बरस से चल रही है और जनता ने चाहा तो आगे भी इसी तरह चलती रहेगी।

(डा. रमन सिंह के पहले कार्यकाल में हुई विकास यात्रा से लौट कर लिखी गई टिप्पणी)

बस्तर को ढूंढ़ती रहीं निगाहें

विकास यात्रा का दूसरा चरण अभी पूरा नहीं हुआ है। कल इसने बलौदाबाजार में अस्थायी विराम लिया है। कुछ दिनों में यह सफर फिर शुरू हो जाएगा। गांवों शहरों से गुजरते हुए, नए नए अनुभवों के साथ।
प्रदेश सरकार की इस विकास यात्रा के समानांतर एक और यात्रा चल रही है। यह यात्रा है डाक्टर रमन सिंह के राजनेता से जननेता बनने की। एक जबरदस्त प्रदेश व्यापी जनसमर्थन उन्हें मिलता दिख रहा है। लोग उनकी एक झलक पाने के लिए दौड़ रहे हैं। उनसे हाथ मिलाने की होड़ लगी है। उन्हें छू लेने की ललक में हाथ बढ़ रहे हैं। एक गांव में किसी ने डाक्टर साहब के हाथ पकड़ लिए तो उन्हें कहना पड़ा- अरे भाई हाथ तो छोड़ो। लोग उन्हें छोडऩा नहीं चाह रहे। विकास रथ की खिड़की से झांकते डाक्टर रमन सिंह को देखकर लोग कितने रोमांचित हो रहे हैं यह इन दृश्यों को देखकर ही जाना जा सकता है।
बात हो रही थी डा. रमन सिंह के जन नेता बनने की। अगर अब तक वे पार्टी के आला नेताओं की पसंद थे तो यह यात्रा उन्हें जन जन के नेता के रूप में स्थापित करती चल रही है। बल्कि यह कहना अधिक ठीक होगा कि यह यात्रा इस बात पर से परदा हटाते चल रही है कि डाक्टर साहब जन जन के प्रिय नेता बन चुके हैं। पार्टी के उच्च पदस्थ रणनीतिकार बताते हैं- पार्टी के भीतर डा. रमन सिंह के नेतृत्व को मिलने वाली चुनौतियां इस यात्रा के साथ साथ क्षीण होती जा रही हैं। मन से या बेमन से, पार्टी के नेता चुनाव तक इस नेतृत्व की अनिवार्यता को स्वीकार करते चल रहे हैं।
यात्रा को बीच बीच में बारिश की फुहारें मिल रही हैं लेकिन आमतौर पर झुलसाने वाली दोपहरियां ही मिल रही हैं। सुबह स्थानीय पत्रकारों से चर्चा के बाद जब यात्रा शुरू होती है तो धूप चढ़ चुकी होती है। फिर शुरू होता है जगह जगह स्वागत का सिलसिला। कहीं खुली खिड़की से लोग डाक्टर साहब से मिल लेते हैं तो कहीं लिफ्ट के जरिए डाक्टर साहब ऊपर आ जाते हैं। यात्रा धीमी गति से चल रही है। गाड़ी चलाने वालों का कहना है कि ऐसी यात्रा थका देती है। रथ के आगे पीछे मिलाकर कोई पचास गाडिय़ां चलती रहती हैं। किसी कार रेस जैसा दृश्य दिखता है। जहां रथ रुका, पीछे चलती गाडिय़ों से तुरंत कमांडो कूदकर रथ को घेर लेते हैं। अति उत्साही लोगों को नियंत्रित करते हैं। लेकिन डाक्टर साहब इतनी सुरक्षा के बाद भी लोगों से मिल ही लेते हैं। उनसे हाथ मिला लेते हैं, उनसे फूलमालाएं ले लेते हैं।
महासमुंद के आगे, सरायपाली के रास्ते में उन्हें साइकिल लिए लड़कियों का एक समूह मिल गया। वे मुख्यमंत्री को साइकिल के लिए धन्यवाद कहना चाहती थीं। यह मुलाकात हो सकता है प्रायोजित हो लेकिन थी बहुत मर्मस्पर्शी। डाक्टर साहब लड़कियों के सिर पर हाथ फेरते हुए वात्सल्य से भरे नजर आए। लगता था वे सचमुच अपनी बेटियों से मिल रहे हैं। उन्होंने कहा-एक बेटी चेन्नई में है और इतनी सारी यहां मिल गईं। कुछ समय पहले श्रीमती वीणा सिंह का इंटरव्यू लिया था। इसमें उन्होंने बताया था कि डाक्टर साहब अपनी बिटिया से बहुत प्यार करते हैं। कितना भी तनाव हो, बेटी से बात करके काफूर हो जाता है। इन स्कूली लड़कियों को आश्ीर्वाद देते हुए डाक्टर साहब को निश्चित रूप से अपनी बेटी की याद आ रही थी। यह उनकी आंखों में उमड़ते प्यार को देखकर समझा जा सकता था। उनकी आवाज में भी बेटियों से मिलने की खुशी घुली हुई थी। बहुत से लोग कहते हैं कि मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाला और चार साल सरकार चला लेने वाला आदमी सीधा सादा नहीं हो सकता। लेकिन डाक्टर साहब से कुछ मुलाकातों के बाद लगता है कि उनके भीतर मानवीय संवेदनाएं किसी भी आम आदमी की तरह मौजूद हैं और महफूज भी।
यात्रा के दूसरे चरण में एक महत्वपूर्ण बात यह रही कि लोग लगातार बस्तर को याद करते रहे। कई जगहों पर ठीक ठाक भीड़ वाली आम सभाएं हुईं लेकिन वह मजा नहीं आया जो बस्तर में था। मैदानी इलाके में वह सरलता नहीं मिल रही है। मैनपुर गरियाबंद में कुछ कुछ माहौल बस्तर जैसा रहा लेकिन वह बात नहीं थी। काफिला आगे बढ़ा तो राजनीति की एक और ही शक्ल सामने आती गई। धनबल की भूमिका दिखने लगी। धनबल के कारण जो अनुशासनहीनता आती है वह भी दिखने लगी। इसे बड़े नेता कार्यकर्ताओं का अतिउत्साह कहते हैं। लेकिन यह इतनी मासूम चीज नहीं है।
सरायपाली से डा. रमन सिंह सुबह यात्रा पर रवाना हुए तो कुछ देर के लिए एक स्थानीय नेता के घर रुके। इसे लेकर कुछ लोगों से चर्चा हुई। कुछ का कहना था कि ये मशहूर डॉक्टर हैं और डाक्टर साहब के मित्र हैं। कुछ ने कहा कि डाक्टर साहब अभी तक किसी गरीब की कुटिया में नहीं गए हैं। संपन्न आदमी के घर जाने से अच्छा संदेश नहीं जाएगा। तीन रुपया किलो चावल देेने वाले मुख्यमंत्री को यात्रा के दौरान किसी के घर नहीं जाना था। कुछ लोगों ने कहा-यह चुनावी राजनीति की मजबूरी है। चुनाव के लिए पैसा तो संपन्न लोगों से ही मिलता है।
बलौदाबाजार की सभा के बाद सबको घर जाने की जल्दी थी। मुख्यमंत्री भोजन किए बगैर लौटे। चर्चा थी कि इतना थकने के बाद वे घर जाकर आराम करना चाहते होंगे। घर घर ही होता है। घर का कोई विकल्प नहीं होता। लेकिन बाद में पता चला कि सुबह डाक्टर साहब को दिल्ली जाना है। किसी को भी अचरज हो सकता है कि मुख्यमंत्री आराम कब करते होंगे, पढ़ते लिखते कब होंगे? यात्रा के साथ चल रहे दूसरे लोगों को थकने का हक नहीं है। उनका नेता खुद बिना थके आगे आगे चल रहा है।

(डा. रमन सिंह के पहले कार्यकाल में हुई विकास यात्रा से लौट कर लिखी गई टिप्पणी)

चिलचिलाती धूप में चार कदम

दंतेवाड़ा से चार दिन पहले चिलचिलाती धूप में एक यात्रा शुरू हुई है। अभाव और संघर्ष में जीने वाले बस्तर के लोग धूप में यात्राओं के आदी हैं लेकिन यह यात्रा एक ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में हो रही है जिसकी सब सुखों तक पहुंच है। वह चाहे तो आराम से छांव में दोपहरी काट सकता है। मगर उसने जो जिम्मेदारी कंधों पर उठा रखी है, उसका तकाजा है कि वह धूप में घूम घूम कर देखे कि जनता का काम हो रहा है कि नहीं?
डा. रमन सिंह और उनके साथी इन दिनों विकास यात्रा पर हैं। खुद डा. रमन सिंह के शब्दों में, चार साल पहले दंतेश्वरी माई का आशीर्वाद लेकर उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में काम शुरू किया था। यात्रा के पहले दिन, वे एक बार फिर माई के दरबार में चार साल का हिसाब देने के लिए खड़े हुए थे। और यह संकल्प लेने के लिए भी कि अब तक जो काम किया है, उसे आगे और बेहतर ढंग से कर सकें।
उनका बस चलता तो शायद वे यात्रा के लिए कोई और मौसम चुन लेते। लेकिन चुनाव उन्हें चुनने का मौका नहीं देगा। बहुत से कामों के भूमिपूजन, शिलान्यास और लोकार्पण के लिए उनके पास अधिक समय नहीं है। वे इन कामों को एक साथ निबटा रहे हैं। जनता को अपनी सरकार की उपलब्धियों की याद दिला रहे हैं, यह समझा रहे हैं कि कौन सी चीज महंगी होने के लिए कौन जिम्मेदार है। और कौन सी चीज सस्ते में मिलने के लिए जनता को किसका शुक्रगुजार होना चाहिए।
राजा को अच्छा होना भी चाहिए और अच्छा दिखना भी चाहिए।
यात्रा की शुरुआत माई दंतेश्वरी के मंदिर से हुई। कमांडो से घिरे मंदिर में पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के साथ डा. रमन सिंह ने देवी की पूजा-अर्चना की। दंतेश्वरी वैसे तो पूरे छत्तीसगढ़ में अनेक जगह विराजित हैं लेकिन बस्तरवासियों के तो वे दिल में बसती हैं। वहां से यात्रा की शुरुआत मतलब माई का आशीर्वाद और बस्तरवासियों का समर्थन एक साथ पा लेना।
पहली सभा दंतेवाड़ा में हुई, उसमें जून की दोपहर में मेले जैसा माहौल था। लोगों के जत्थे पर जत्थे चले आ रहे थे। कुछ के पैरों में चप्पलें थीं, लेकिन ज्यादातर नंगे पांव। शहर के लोग कंकड़ों पर नंगे पांव चलने का दुस्साहस नहीं कर सकते। यह गांव जंगल के लोगों का ही जीवट है। दूर दूर से पैदल चले आते इन लोगों को देखकर शहरियों को शर्म आ जानी चाहिए जो सेहत की तरह तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं और तरह तरह की दवाएं खाकर जी रहे हैं। यह कितना अजीब है कि यह तबका खुद को विकसित और आदिवासियों को पिछड़ा समझता है।
यात्रा की योजना बनाते समय यह बात उठी थी कि इस भीषण गर्मी में कौन मुख्यमंत्री को देखने सुनने आएगा? लेकिन पहले चरण में यह आशंका अप्रत्याशित रूप से एकदम गलत साबित हुई है। खुद मुख्यमंत्री का कहना है कि उनके और उनके सहयोगियों के सारे अनुमान फेल हो गए। यात्रा के साथ जुट रहे भारतीय जनता पार्टी के लोगों को खुद भी इतनी भीड़ जुटने की उम्मीद नहीं थी। वे उत्साहित से ज्यादा चमत्कृत हैं। कुछ अनुभवी लोगों का कहना है कि यात्राएं और भीड़ तो उन्होंने पहले भी देखी है लेकिन इस बार लोगों की बॉडी लैंग्वेज कुछ और ही है। उसमें प्यार भी है, उम्मीद भी और भरोसा भी।
यात्रा का रास्ते भर उत्सुकता और उत्साह से भरे लोगों ने हाथ हिला हिला कर स्वागत किया और ऐसी ही विदाई भी दी। फूलों के हार और पंखुरियों से भरे थाल लेकर महिलाओं की लंबी कतारें घंटों इंतजार के बाद भी थकी हुई नहीं लगीं। घरों की चौखट, खिड़कियों, और छतों से लोगों ने यात्रा को सिर्फ देखा नहीं, हाथ भी हिलाए। यात्रा के दौरान लगातार यह अहसास बना रहा कि हम एक लोकप्रिय आदमी की यात्रा में शामिल हैं।
राजनीति के अनुभवी लोगों के बीच भीड़ जुटाने के कौशल पर भी चर्चा चलती रही। लेकिन वह मुद्दा नहीं बन सका। वैसे अगर भाजपा के संगठन ने यह भीड़ जमा की है तो भी यह पार्टी के लिए खुशी का विषय हो सकता है। इससे संगठन की सक्रियता और सामथ्र्य का पता चलता है। यह भीड़ सीधे वोटों में तब्दील होगी कि नहीं, इस पर भी चर्चा चलती रही। लेकिन भाजपा के कुछ बड़े नेताओं ने संयम का परिचय देते हुए कहा कि वे अतिउत्साह में आकर कोई राय नहीं बना रहे हैं। चुनाव में अभी समय है और जैसा कि मुख्यमंत्री ने अपने साक्षात्कार में कहा कि वे कांग्रेस को हल्के से नहीं लेते, उसे एक गंभीर चुनौती मानते हैं।
यात्रा में आम सभाओं और स्वागत सभाओं की जगहें निर्धारित हैं। लेकिन कई जगह भीड़ देखकर मुख्यमंत्री का काफिला रुक भी रहा है। पड़ाव दर पड़ाव उनके भाषण में नई चीजें जुड़ती जा रही हैं। यात्रा के दूसरे तीसरे दिन दो बूढ़ी महिलाओं की बातचीत का किस्सा इसमें शामिल हो गया। मुख्यमंत्री इस किस्से के जरिए बताते हैं कि लोग अब उन्हें तीन रुपए वाला डाक्टर रमन और पचीस पैसे वाले डाक्टर रमन के रूप में जानने लगे हैं। प्रदेश सरकार को महंगाई के लिए जिम्मेदार बताने के प्रचार से दुखी होते हुए उन्होंने दुर्ग की एक आमसभा में कहा-दाढ़ी वाला गलती करिस, मेछा वाले ला सजा हो गे। उनकी चुटीली बातों पर ठहाके लग रहे हैं। बहुत जगहों पर लोग स्वागत के लिए खड़े रह जा रहे हैं और काफिला निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक आगे निकल जा रहा है। उन्हें जुटाने वाले लोगों को सफाई देनी पड़ रही है, माफी मांगनी पड़ रही है। ऐसा एक एनाउंसमेंट हमने चलते चलते सुना।
कच्चे रास्तों, टूटे फूटे घरों और गरीब लोगों के बीच से गुजरते एसी गाडिय़ों के काफिले को देखकर मन में आता है कि यह लोकतंत्र की कैसी तस्वीर है? लेकिन फिर जहां काफिला रुकता है, जनता वहां भीड़ की शक्ल में, हाथों में फूल लिए मौजूद मिलती है। प्रदेश में जनता के पास वैसे भी विकल्प सीमित हैं। और सभी एसी गाडिय़ों वाले हैं। जनता को उन्हीं के बीच अपनी उम्मीद के लिए सहारा ढूंढना है। इस यात्रा में वह डा. रमन सिंह में यह सहारा ढूंढती नजर आती है।

(डा. रमन सिंह के पहले कार्यकाल में हुई विकास यात्रा से लौटकर लिखी गई टिप्पणी)

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

इनका दुख भी पूछें

भूकंप ने गुजरात के कई शहरों, कस्बों और गांवों को तबाह करके रख दिया है। यहां के लोगों का जो नुकसान हुआ है वह अकल्पनीय है। उसकी भरपाई आसानी से नहीं की जा सकती। शुरूआती बचाव और राहत के बाद अब इस बात की फिक करने का समय है कि भूकंप से तबाह हुए लोगों को फिर से किस तरह बसाया जाए। इस विनाश के बाद कई लोग अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेंगे। नए सिरे से रोजगार ढूंढेंगे, नए सिरे से काम खोजेंगे। केंद्र और राज्य सरकार इन सबकी मदद कर रही है। सारा देश इनकी मदद कर रहा है। इस मदद के बगैर तबाह लोगों का फिर से अपने पैरों पर खड़ा होना नामुमकिन तो नहीं कठिन जरूर है। कितने ही लोगों को सर छिपाने के लिए तम्बू मिल रहे हैं। खाने के लिए जो मिल जाए वह गनीमत है। व्यापार- व्यवसाय ठप्प है। कौन खरीदेगा, कौन बेचेगा- यह सवाल है। इन हालात में बहुत से परिवार अस्थायी रूप से अपने परिजनों के यहां चले गए हैं। और बाहर से रोजी रोटी कमाने के लिए गए मजदूरों को भी वहां से लौटना पड़ रहा है। देशबन्घु ने ऐसे मजदूरों के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित की है। ईंटभट्ठों में काम करने वाले मजदूर भूकंप से घबराकर घर लौट रहे हैंं। उन्हें नहीं मालूम कि घर लौट कर उन्हें क्या मिलने वाला है। अकाल से घबराकर ये लोग अपना घर बार छोड़कर गए थे। अपने देस में रोजी रोटी न मिलने के कारण यहां से गए थे। छीसगढ़ से बड़ी संख्या में मजदूर देश के अलग अलग प्रदेशों में हर साल मजदूरी करने जाते हैं। देश के दूसरे प्रदेशों से भी संपन्न इलाकों की तरफ ऐसा पलायन होता है। अब ये लोग अपने अपने घर लौट रहे हैं। और एक मुद्दा यह भी है कि इनका क्या होगा। अब ये कहां जाएंगे, क्या खाएंगे। इनकी फिक कौन करेगा क्या इनके लिए भी स्थानीय स्तर पर कोई मदद जुटाई जाएगी। क्या इन्हें कोई काम मिल पाएगा पलायन करने वाले मजदूरों के बारे में हम कई बार लिख चुके हैं कि इनकी फिक की जानी चाहिए। हालांकि आदर्श स्थिति तो यह होगी कि काम न मिलने की मजबूरी से किसी को अपना घर बार छोड़कर कहीं न जाना पड़े। लेकिन जब तक रोजगार के इतने अवसर पैदा नहीं होते, विकास इतनी रफ्तार नहीं पकड़ता कि इतने सारे लोगों की यहीं जरूरत पड़े, तब तक इतना तो किया जा सकता है कि जो लोग बाहर रोजी रोटी तलाश रहे हैं उनकी सलामती का खयाल रखा जाए। गुजरात से लौटने वाले मजदूरों की खबरों के अलावा उन मजदूरों के बारे में भी खबरें आ रही हैं जो यहां से गए तो हैं लेकिन कहां हैं किसी को नहीं मालूम। छीसगढ़ के लवन से एक ऐसी ही खबर आई है जिसके मुताबिक यहां से हर साल की तरह बड़ी संख्या में लोग इघर उघर गए हैं। कुछ गुजरात भी गए हैं। उनका अतापता नहीं है। गुजरात से लौटने वाले श्रमिकों से यह भी पता चल रहा है कि उनके साथी बंघक के रूप में काम कर रहे हैं। इन खबरों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। यह पहली बार नहीं है कि प्रवासी मजदूरों को बंघक बनाकर रखे जाने की खबर आई है।मगर जो मजदूर ठेकेदारों के चंगुल से बचकर भाग निकलते हैं उनकी बताई कहानियां ही सामने आ पाती हैं। बाकी का क्या होता है, यह जानने का कोई तरीका स्थानीय प्रशासन के पास होना चाहिए। मगर फिलहाल थोड़ी सी चिंता उन मजदूरों की कर ली जानी चाहिए जो अकाल के मारे यहां से गए थे और जिन्हें भूकंप ने लौटा दिया। इन्हें निस्संदेह मदद की जरूरत है। और स्थानीय प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अकाल राहत के काम में या कहीं और इनकी रोजी रोजी का प्रबंघ हो सके। इनसे जानकारी लेकर बचे हुए मजदूरों के बारे में भी पता किया जाना चाहिए। गुजरात के लिए सारे देश से जो मदद आयी है वह इस बात की गवाह है कि देश के पास संसाघनों की कमी नहीं है। बड़ी बड़ी न्नासदियों से निबटने के लायक संसाघन हैं। जरूरत उनके इस्तेमाल की है। भूकंप के बहाने इन संसाघनों के और बेहतर इस्तेमाल के बारे में सोचा जाना चाहिए। पलायन को मजबूर लोगों की मजबूरी दूर करने के बारे में इस नए संदर्भ में सोचना चाहिए।

भटाचार का खेल जारी

पुराने मयप्रदेश और अब नए राज्य छीसगढ़ के उपेक्षित गिने जाने वाले इलाके बस्तर से एक खबर आई है कि मयान्ह भोजन योजना में भारी घोटाला किया गया है। बタाों को खाना खिलाने के नाम पर दिए जाने वाले सरकारी पैसे का हिसाब किताब नहीं मिल रहा है। इसका ऑडिट करने के लिए जो टीम भेजी जा रही है उसे हिसाब बताने वाले नहीं मिल रहे हैं और खबर के मुताबिक सरपंच और पंचायत सचिव ऑडिट वालों को देखकर लापता हो जा रहे हैं। यह खबर सिर्फ जगदलपुर जिले की है। बाकी जगहों के बारे में लगातार खबरें आती रहती हैं। पुराने मयप्रदेश में भी यही हाल था और अब छीसगढ़ में भी यही हाल है। यह योजना १९९५ से चल रही है जिसके तहत हर विद्यार्थी के पीछे सौ गाम चावल और नमक, तेल, दाल व लकड़ी के लिए ७५ पैसे दिए जाते हैं। भट व्यवस्था इतनी छोटी सी मदद भी उन तक पहुंचने नहीं दे रही है। यह सिर्फ एक योजना का हाल है। और इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकारी योजनाओं का किस तरह सत्यानाश किया जा रहा है, उसका लाभ सही जगह पहुंचने से किस तरह रोका जा रहा है और सरकारी पैसा किस तरह अपनी जेबों में भरा जा रहा है। नवजात बタाों, वृद्घों, गर्भवती महिलाओं, निराश्रितों के लिए दिया गया पैसा और पोषक आहार उन तक कितना पहुंच रहा होगा यह इससे अनुमान लगाया जा सकता है। दोपहर भोजन योजना को तत्कालीन प्रघानमंन्नी पीवी नरसिंह राव की राजनीतिक घोषणा कहा गया था। लेकिन राजनीति से परे, इस योजना में एक आकर्षण था और एक उपयोगिता भी थी। स्कूलों को बタाों के लिए अघिक आकर्षक बनाने में, अघिक उपयोगी और अघिक जरूरी बनाने में यह योजना कामयाब हो सकती थी अगर ईमानदारी से इसे लागू किया जाता। लेकिन कहीं व्यावहारिक दिक्कतों के कारण और कहीं भटाचार के कारण यह योजना भी दूसरी तमाम योजनाओं की तरह फ्लॉप साबित हो गयी। और इस भटाचार में हर स्तर के लोग शामिल हैं। खाद्य निगम पर आरोप है कि उसने योजना के लिए सड़ा गला अनाज दिया। इस योजना के लागू होने के पहले से इसे लेकर शंकाएं उठाई जा रही थीं कि व्यावहारिक रूप से यह कमजोर है, इसके लिए दिया जा रहा पैसा अपर्याप्त है। लेकिन एक मौका था बच्चों के पालकों, पंचायतों, जनप्रतिनिघियों, समाजसेवी संस्थाओं और दूसरे तमाम लोगों के पास कि बच्चों को खाना खिलाने की इस योजना में जो भी कमियां हैं उन्हें वे अपने उद्यम से दूर कर लेंगे। ऐसा बहुत से लोगों ने किया, शिक्षकों ने साइकिल पर जलाऊ लकड़ियां और राशन ढोया, खाना बनाया, बタाों को खिलाया पिलाया। लेकिन जल्द ही अव्यवस्था और भटाचार ने इसे बदनाम कर दिया। जनता के बीच से इतना पैसा इकट्ठा नहीं हो सका कि नियमित दोपहर भोजन के चूल्हे में आग जल सके। सेवाभावी लोग अपना समय इसे नहीं दे सके। एक दो शिक्षकों वाले स्कूलों के शिक्षक अघिक समय तय इस योजना का बोझ नहीं ढो सके।दूर दराज के गांवों की बात तो दूर, बड़े शहरों में भी सरकारी योजनाओं के पैसे के साथ यही हो रहा है। रायपुर के भी स्कूलों में यह योजना लागू की गयी थी और चार महीने दोपहर भोजन का चावल न मिलने की शिकायत लेकर बタाों तक ने तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष के निवास पर घरना दे दिया था। जहां खाना खिलाने के बजाय चावल देना तय किया गया वहां चावल के लिए बタाों को राशन दूकानों के चक्कर लगाने पड़े और लंबी लाइनें लगने लगीं। भटाचार का आलम यह था कि कई राशन दूकानों से यह जानकारी दी जाने लगी कि यह योजना ही बंद हो गई है। शुरू शुरू में अव्यवस्था और भटाचार की खबरों पर कार्रवाइयां भी हुईं और उनसे दहशत भी फैली। महासमुंद के तत्कालीन अनुविभागीय अघिकारी को दंडित किया गया, सरगुजा जिले में बारह शिक्षकों को निलंबित किया गया। मगर बाद में यह सजगता और तत्परता खत्म हो गयी। इसी का नतीजा है कि भटाचार इतना ज्यादा हो रहा है कि ऑडिट वालों को देखकर सरपंच- पंचायत सचिव भागे भागे फिर रहे हैं। नया राज्य बना है तो लोगों की उम्मीदें ज्यादा हैं। नए मुख्यमंन्नी प्रशासनिक अघिकारी रहे हैं इसलिए भी उनसे उम्मीद ज्यादा है। मगर इन उम्मीदों के बदले वही खबरें लगातार मिल रही हैं। अगर इसे गंभीरता से नहंी लिया गया तो उम्मीदें टूटेंगी। बस्तर से आने वाली भटाचार की हर खबर नक्सलवाद के पक्ष में एक तर्क दे जाती है। मुख्यमंन्नी ने कई बार कहा है कि जिन समस्याओं को लेकर जनता में असंतोष है उनका समाघान कर देना नक्सलवाद से निबटने का सबसे उपयुक्त रास्ता है। बस्तर प्रशासन को, वहां के जनप्रतिनिघियों को इस दिशा में गंभीरता से काम करना चाहिए।

किकेट के बेन जानसन

खेल जगत में अभी बुरी खबरों का सिलसिला खत्म नहीं हुआ है। और ये खबरें किकेट और किकेटरों के बारे में ही हैं। खेल मंन्नालय ने उन किकेटरों से अर्जुन पुरस्कार वापस लेने का इरादा व्यक्त किया है जिन पर मैच फिक्सिंग में आरोप साबित हुए हैं।बोर्ड ने इन दोषी खिलाड़ियों को पांच साल के लिए प्रतिबंघित भी कर दिया है।मोहम्मद अजहरूद्दीन, मनोज प्रभाकर और अजय जडेजा ऐसे खिलाड़ी हैं जिनको अर्जुन पुरस्कार मिल चुका है और जिनको किकेट बोर्ड और सीबीआई की जांच में दोषी पाया गया है। खेल मंन्नालय ने कोई कार्रवाई करने के पहले इन खिलाड़ियों को अपना पक्ष रखने का मौका दिया था लेकिन तीनों ही खिलाड़ियों ने इसके लिए बनाए गए आयोग के सामने पेश होना जरूरी नहीं समझा। खबर है कि ये सभी खिलाड़ी खेल मंन्नालय के इस प्रस्तावित फैसले के खिलाफ अदालत में जाने का मन बना रहे हैं। मनोज प्रभाकर ने तो बाकायदा चुनौती दी है कि खेल मंन्नालय उनका पुरस्कार वापस लेकर तो दिखाए। उनका कहना है कि उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया है जिसके कारण उनसे उनका पुरस्कार वापस लिया जाए। मनोज प्रभाकर अगर यह कह रहे हैं कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है तो उनका अपना पक्ष है। लेकिन सीबीआई और किकेट बोर्ड की जांच का नतीजा है कि वे और उनके साथी खिलाड़ी दोषी हैं। और उन पर कार्रवाई उनके दोषी साबित होने के आघार पर की जा रही है। ऐसे में हमारा मानना है कि कार्रवाई सही है और दोषी खिलाड़ियों को पूर्व में दिए गए सम्मान वापस ले लिए जाने चाहिए। उनके इन तकोर्ं से हम सहमत नहीं हैं कि ये सम्मान उन्हें अपने प्रदर्शन के आघार पर दिया गया है और इस पर उनका हक है। सम्मान की यह अवघारणा सही नहीं है। पुरस्कार पाने की प्रशासनिक प्रकिया और पैसे कमाने के लिए खेलने की व्यावसायिक सोच - इन सब बातों ने मिलकर सम्मान के बारे में इस नयी अवघारणा को जन्म दिया है। खिलाड़ी को देश की ओर से दिया गया सम्मान उसके ारा खेल से कमाए गए पैसे से अलग चीज है। उसका महत्व खिलाड़ी की निजी संपि होने से ज्यादा है। राट्रीय पुरस्कार उन लोगों को दिए जाते हैं जो राट्रीय गौरव का विषय होते हैं। वे राट्रीय गौरव के रूप में इतिहास में दर्ज होते हैं। पीढ़ियां उनसे सबक लेती हैं। किसी सम्मान का महत्व किसी पेंशन की तरह थोड़े समय बाद खत्म नहीं हो जाता। इस बारे में दोषी साबित खिलाड़ियों की राय अलग हो सकती है पर हमारा मानना है कि जो खिलाड़ी देश की तरफ से सम्मानित होते हैं, जनता जिन्हें सर आंखों पर बिठाती है उनके लिए वे भी उタातर जीवन मूल्यों के उदाहरण पेश करें। मगर कम खिलाड़ी हैं जो इसका यान रखते हैं। बहुत कम खिलाड़ियों का जीवन ऐसा है जिसे अनुकरणीय माना जाए। सादगी और शिटाचार का जीवन जीने वाले खिलाड़ियों की संख्या घटती जा रही है। मीडिया की नजरें जब और तेज होती जा रही हैं, वह अपनी जिम्मेदारियों की परवाह कम करता जा रहा है तब तो खिलाड़यों को और भी ज्यादा इस बात का यान रखना चाहिए कि उनका आचरण उनके प्रशंसकों के लिए अनुकरणीय हो, देश के लिए गौरव का विषय हो। पर बाजार की संस्कृति इतनी हावी है कि जन भावनाओं की, जन अपेक्षा की कद्र करने की जरूरत ही नहीं समझी जाती। देश के सम्मान के बारे में सोचने की जरूरत नहीं समझी जाती। एक समय था जब देश के लिए किकेटरों ने कैरी पैकर की बड़ी बड़ी राशियों का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। ये बहुत कम पैसों में खेलने वाले किकेटर थे जिनके लिए वह पैसा और ज्यादा जरूरी था। लेकिन आज जिन्हें पहले से बहुत ज्यादा पैसा मिल रहा है, अपने बहुत से जरूरी और बुनियादी सरोकारों को भूल गए हैं। शेन वार्न सट्टेबाजों से संबंघ साबित होने के बाद भी अपने देश की टीम में खेल रहे हैं, माराडोना खुद को शताब्दी का सर्वश्रेठ खिलाड़ी घोषित न किए जाने से नाराज हो रहे हैं, बायन लारा अपनी गर्लफेंड के लिए अपने खेल की तरफ यान न देने का आरोप झेल रहे हैं। ये घटनाएं खेल जगत में जो कुछ चल रहा है उसके बारे में बहुत आशा नहीं जगातीं। सम्मान ऐसी चीज है जो खरीदने से नहीं मिलती। उसका मतलब समझने की जरूरत है। अगर खिलाड़ियों को लगता है कि उन्हें दोषी ठहराने का फैसला गलत है तो वे इसके खिलाफ अपील कर सकते हैं। लेकिन दोषी साबित होने के आघार पर अगर यह फैसला किया जाता है कि उन्हें दिया गया सम्मान वापस ले लिया जाए तो यह गलत नहीं है। वैसे पुरस्कार तो एक प्रतीक है और उसे देना और वापस लेना तो महज एक औपचारिकता है। जन नायकों के सम्मान और असम्मान का असली फैसला जनता करती है। खिलाड़ियों को इस बात की फिक करनी चाहिए कि जनता उनके बारे में क्या सोचती है। अगर जनता उनके साथ है तो उन्हें किसी सम्मान के मिलने न मिलने की फिक नहीं करनी चाहिए। कितने खिलाड़ियों को यह विश्रास है कि जनता उनके साथ है