गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

भटाचार का खेल जारी

पुराने मयप्रदेश और अब नए राज्य छीसगढ़ के उपेक्षित गिने जाने वाले इलाके बस्तर से एक खबर आई है कि मयान्ह भोजन योजना में भारी घोटाला किया गया है। बタाों को खाना खिलाने के नाम पर दिए जाने वाले सरकारी पैसे का हिसाब किताब नहीं मिल रहा है। इसका ऑडिट करने के लिए जो टीम भेजी जा रही है उसे हिसाब बताने वाले नहीं मिल रहे हैं और खबर के मुताबिक सरपंच और पंचायत सचिव ऑडिट वालों को देखकर लापता हो जा रहे हैं। यह खबर सिर्फ जगदलपुर जिले की है। बाकी जगहों के बारे में लगातार खबरें आती रहती हैं। पुराने मयप्रदेश में भी यही हाल था और अब छीसगढ़ में भी यही हाल है। यह योजना १९९५ से चल रही है जिसके तहत हर विद्यार्थी के पीछे सौ गाम चावल और नमक, तेल, दाल व लकड़ी के लिए ७५ पैसे दिए जाते हैं। भट व्यवस्था इतनी छोटी सी मदद भी उन तक पहुंचने नहीं दे रही है। यह सिर्फ एक योजना का हाल है। और इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकारी योजनाओं का किस तरह सत्यानाश किया जा रहा है, उसका लाभ सही जगह पहुंचने से किस तरह रोका जा रहा है और सरकारी पैसा किस तरह अपनी जेबों में भरा जा रहा है। नवजात बタाों, वृद्घों, गर्भवती महिलाओं, निराश्रितों के लिए दिया गया पैसा और पोषक आहार उन तक कितना पहुंच रहा होगा यह इससे अनुमान लगाया जा सकता है। दोपहर भोजन योजना को तत्कालीन प्रघानमंन्नी पीवी नरसिंह राव की राजनीतिक घोषणा कहा गया था। लेकिन राजनीति से परे, इस योजना में एक आकर्षण था और एक उपयोगिता भी थी। स्कूलों को बタाों के लिए अघिक आकर्षक बनाने में, अघिक उपयोगी और अघिक जरूरी बनाने में यह योजना कामयाब हो सकती थी अगर ईमानदारी से इसे लागू किया जाता। लेकिन कहीं व्यावहारिक दिक्कतों के कारण और कहीं भटाचार के कारण यह योजना भी दूसरी तमाम योजनाओं की तरह फ्लॉप साबित हो गयी। और इस भटाचार में हर स्तर के लोग शामिल हैं। खाद्य निगम पर आरोप है कि उसने योजना के लिए सड़ा गला अनाज दिया। इस योजना के लागू होने के पहले से इसे लेकर शंकाएं उठाई जा रही थीं कि व्यावहारिक रूप से यह कमजोर है, इसके लिए दिया जा रहा पैसा अपर्याप्त है। लेकिन एक मौका था बच्चों के पालकों, पंचायतों, जनप्रतिनिघियों, समाजसेवी संस्थाओं और दूसरे तमाम लोगों के पास कि बच्चों को खाना खिलाने की इस योजना में जो भी कमियां हैं उन्हें वे अपने उद्यम से दूर कर लेंगे। ऐसा बहुत से लोगों ने किया, शिक्षकों ने साइकिल पर जलाऊ लकड़ियां और राशन ढोया, खाना बनाया, बタाों को खिलाया पिलाया। लेकिन जल्द ही अव्यवस्था और भटाचार ने इसे बदनाम कर दिया। जनता के बीच से इतना पैसा इकट्ठा नहीं हो सका कि नियमित दोपहर भोजन के चूल्हे में आग जल सके। सेवाभावी लोग अपना समय इसे नहीं दे सके। एक दो शिक्षकों वाले स्कूलों के शिक्षक अघिक समय तय इस योजना का बोझ नहीं ढो सके।दूर दराज के गांवों की बात तो दूर, बड़े शहरों में भी सरकारी योजनाओं के पैसे के साथ यही हो रहा है। रायपुर के भी स्कूलों में यह योजना लागू की गयी थी और चार महीने दोपहर भोजन का चावल न मिलने की शिकायत लेकर बタाों तक ने तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष के निवास पर घरना दे दिया था। जहां खाना खिलाने के बजाय चावल देना तय किया गया वहां चावल के लिए बタाों को राशन दूकानों के चक्कर लगाने पड़े और लंबी लाइनें लगने लगीं। भटाचार का आलम यह था कि कई राशन दूकानों से यह जानकारी दी जाने लगी कि यह योजना ही बंद हो गई है। शुरू शुरू में अव्यवस्था और भटाचार की खबरों पर कार्रवाइयां भी हुईं और उनसे दहशत भी फैली। महासमुंद के तत्कालीन अनुविभागीय अघिकारी को दंडित किया गया, सरगुजा जिले में बारह शिक्षकों को निलंबित किया गया। मगर बाद में यह सजगता और तत्परता खत्म हो गयी। इसी का नतीजा है कि भटाचार इतना ज्यादा हो रहा है कि ऑडिट वालों को देखकर सरपंच- पंचायत सचिव भागे भागे फिर रहे हैं। नया राज्य बना है तो लोगों की उम्मीदें ज्यादा हैं। नए मुख्यमंन्नी प्रशासनिक अघिकारी रहे हैं इसलिए भी उनसे उम्मीद ज्यादा है। मगर इन उम्मीदों के बदले वही खबरें लगातार मिल रही हैं। अगर इसे गंभीरता से नहंी लिया गया तो उम्मीदें टूटेंगी। बस्तर से आने वाली भटाचार की हर खबर नक्सलवाद के पक्ष में एक तर्क दे जाती है। मुख्यमंन्नी ने कई बार कहा है कि जिन समस्याओं को लेकर जनता में असंतोष है उनका समाघान कर देना नक्सलवाद से निबटने का सबसे उपयुक्त रास्ता है। बस्तर प्रशासन को, वहां के जनप्रतिनिघियों को इस दिशा में गंभीरता से काम करना चाहिए।

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