गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

एड्‌स के खिलाफ

विश्व एडस दिवस पर संयुक्त राट्र एड्‌स कार्यकम ने जो आंकड़े जारी किए हैं वे चौंकाने वाले हैैंं। इनके मुताबिक अब तक इस महामारी से सारी दुनिया में २ करोड़ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। इनमें ४३ लाख बタो हैं और ९० लाख महिलाएं भी। इस साल इस बीमारी ने ५३ लाख नए लोगों को अपनी चपेट में लिया है और ३० लाख लोग इससे मरे हैं। भारत में भी यह रोग चिंताजनक ढंग से फैल रहा है। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित राज्यों में से एक महाराट्र के बारे में जारी एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक यहां एचआईवी से गस्त लोगों की संख्या ८० हजार से ज्यादा है और जिस तेजी से देश भर में यह बीमारी बढ़ रही है, उससे छः गुना ज्यादा रफ्तार से यह महाराट्र में बढ़ रही है। मुम्बई में जाहिर है कि यह बीमारी और ज्यादा गंभीर रूप से बढ़ रही है। १९८६ के बाद से यहां ८० हजार लोग वाइरस से प्रभावित पाए गए हैं, ४ हजार एड्‌स पीड़ित करार दिए गए हैं और सैकड़ों मौतें इससे हो चुकी हैं। भारत में एक आकलन के मुताबिक इस साल के अंत तक वाइरस प्रभावितों की संख्या ५० लाख तक पहुंच जाने की आशंका है। पिछले साल यह संख्या ३७ लाख थी और इस रोग से मरने वालों की संख्या ३ लाख से ज्यादा थी। सारी दुनिया में पिछले साल एचआईवी प्रभावित लोगों की संख्या करीब साढ़े तीन करोड़ थी। और इसके बढ़ने की दर का अनुमान इस आकलन से लगाया जा सकता है कि हर मिनट ५ नौजवान एचआईवी से प्रभावित हो रहे हैं। और इसके बावजूद हाल यह है कि आम आदमी को इस रोग की गंभीरता का अहसास नहीं है। गैर पढ़े लिखे आदमी की बात तो समझ में आती है, पढ़े लिखे लोगों को भी एड्‌स के बारे में थोड़ी सी पढ़ी हुई जानकारी है लेकिन इसकी गंभीरता के बारे में उनमें से भी कम लोग सोचते हैं। यह बीमारी बढ़ते बढ़ते सबके लिए खतरा बन सकती है, इसे रोकना एक सामाजिक जवाबदारी है, ऐसा सोचने वालों की संख्या शायद एड्‌सगस्त लोगों से भी कम है। किसी को एड्‌स हो गया तो उससे दूर भागना अलबा सबको आता है। एड्‌स के बारे में एक चिंताजनक बात यह है कि बタाों को भी इसने प्रभावित किया है। एड्‌सगस्त मां बाप के कारण हो चाहे इंजेक्शन देते वक्त हुए संकमण के कारण हो चाहे यौन शोषण के शिकार होने के कारण हो, बタो जिस बड़ी संख्या में इससे प्रभावित हैं वह नजरअंदाज करने लायक नहीं है। रोजी रोटी की समस्या से जूझते समाज को एड्‌स के खतरे के बारे में बताना, समझाना मुश्किल हैे। लेकिन ऐसा नहीं कि कुछ किया ही नहीं जा सकता और कुछ किया ही नहीं जाना चाहिए। जिन लोगों को एड्‌स अपना शिकार बना रहा है उस वर्ग के लोगों को एड्‌स के बचाव के उपायों से लैस किया जाना, एड्‌स से बचाव की दिशा में एक कदम हो सकता है। और इस राह में एक बहुत बड़ा रोड़ा है सेक्स के बारे में भारतीय जनमानस की दकियानूसी। यह दकियानूसी हमें बタाों को यौन शिक्षा देने से रोकती है। स्कूल ही नहीं कॉलेज के विद्यार्थियों को भी यह शिक्षा देने की बात पर विरोघ करने वाले उठ खड़े होते हैं। सही शिक्षा के अभाव में बタो गलत सलत जानकारियों के साथ जीते हैं और दुर्घटनाआंें का शिकार होते हैं। हमारा मानना है कि कタाी उम के नौजवानों को यौन शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वे असुरक्षित सेक्स से होने वाले नुकसानों के बारे में जागरूक हो सकें। और यही नहीं, उन्हें समाज के कम जागरूक तबकों में जानकारियां फैलाने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जो काम मुट्ठी भर समाज सेवी संस्थाएं कर रही हैं उनमें अगर कॉलेज के नौजवानों की हिस्सेदारी हो जाए तो एक प्रभावी जनजागरण आंदोलन पैदा हो सकता है। नौजवानों को तो अघिक आसानी से सुरक्षित बनाया जा सकता है, लेकिन बタाों को इस रोग की चपेट में आने से बचाना कठिन है। कुछ तो मां बाप के एड्‌स गस्त होने का नतीजा भुगतते हैं तो कुछ यौन शोषण का। यहां भी हमारी दकियानूसी आड़े आती है। वो इस तरह कि हम यह मानने से इनकार कर देते हैं कि इस तरह की घटनाएं हमारे परिवार में, समाज में हो रही हैं और इनमें बタो के परिचित और निकट के रिश्तेदार ही गुनाहगार हैं। बタाों के पालकों को अपनी इस शुतुरमुर्गी सोच से निकलना होगा। बल्कि स्कूली बच्चों को भी कैसे यौन हमलों के खिलाफ तैयार किया जा सकता है इसके लिए मनोवैानिकों की सलाह से कोशिश की जानी चाहिए। सरकारी एजेंसियां भी एड्‌स और यौन रोगांें के खिलाफ जनजागरण अभियान चलाती तो हैं, वे अपेक्षित प्रभाव पैदा क्यों नहीं कर पा रही हैं इस बारे में सोचा जाना चाहिए।

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