गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

संकट मोचन कहां थे

गुजरात में भूकंप ने विनाशलीला मचा दी है। भुज शहर और उसके आसपास के गांव तबाह हो गए हैं। पंद्रह से बीस हजार लोगों के मरने की खबर आ रही है और यह आंकड़ा आगे भी जा सकता है। हजारों लोग जिंदा या मुर्दा मलबे के नीचे दबे हुए हैं और मलबा हटाकर उन्हें निकालने का काम युद्घ स्तर पर चल रहा है। स्थानीय लोग, स्वयंसेवी संस्थाएं, पुलिस, नागरिक प्रशासन, सेना सभी इस काम में जुटे हुए हैं। भूकंप पीड़ितों की मदद के लिए सारी दुनिया से सहायता आ रही है। देश के कोने कोने से स्वयंसेवक, डॉक्टर, जरूरी सामान आ रहा है। ट्रेनें यान्नियों को मुफ्त ढो रही हैं। एयरलाइन्स मुफ्त राहत सामगी ढो रही है। विदेश से दवाएं आ रही हैं, सूंघने वाले कुे आ रहे हैं, चलता फिरता अस्पताल आ रहा है, कंकीट काटने वाले यंन्न आ रहे हैं, संचार उपकरण आ रहे हैं। संयुक्त राट्र और रेडकास की सहायता मिल रही है, राज्य सरकारें मदद कर रही हैं, केंद्र सरकार से मदद की घोषणा हुई है। मगर इसके बाद भी भूकंप पीड़ितों को लग रहा है कि यह सब नाकाफी है। जिस इलाके में पंद्रह हजार लोग कुछ सेकंड्‌स के भीतर मारे जाएं, उनकी लाशें मलबे में फंस जाएं, रहने को घर न रहे, खाने का ठिकाना न रहे और आगे क्या होगा इस सवाल का कोई ढाढस बंघाने वाला जवाब न हो वहां किसी को राहत का अहसास दिलाना असंभव है। जहां अस्पताल खुद ढह गए हों वहां लोगांें को चिकित्सा सुविघा उपलब्घ कराना कठिन है, जहां रसोइयां बाकी न हों वहां लोगों के खाने पीने की चिंता करना दुकर है। लेकिन इस सबके बावजूद भूकंप पीड़ितों को, खास तौर पर भुज और आसपास के गांवों को इस बात का लंबा इंतजार करना पड़ा कि उनकी मदद के लिए लोग आएं, सरकारी सहायता आए। मलबा हटाया जा सके, उसके भीतर से जिन जिंदा लोगों की आवाजें आ रही हैं उन्हें जीवित ही बाहर निकाला जा सके। छब्बीस जनवरी की सुबह भूकंप आया और भुज के बारे में खबरें दूसरे दिन मिलना शुरू हुईं। जिस तीवता का भूकंप आया था, रिहायशी इलाके के जितने करीब आया था उससे अंदाज लगाया जा सकता था कि कच्छ में क्या हाल हुआ होगा। अहमदाबाद में हुए विनाश से यह अंदाजा लगाया जा सकता था कि भुज और उसके आसपास क्या हाल हुआ होगा। मगर दूसरे दिन तक स्थानीय लोग ही राहत कायोर्ं में जुटे रहे। उनके पास पर्याप्त औजार भी नहीं थे। केनें बहुत देर से पहुंची, सेना की मदद देर से पहुंची, राहत की घोषणाएं मंथर गति से हुईं। और जनता को घोषणाएं नहीं चाहिए थीं। मरने वालों के पीछे कितने लाख दिए जाएंगे, यह घोषणा नहीं चाहिए थी। जनता को तंबुओं, बिस्तरों, कंबलों, दवाओं, खाने पीने की चीजों की जरूरत थी। राहत कायोर्ं में लगे लोगों को केनों और डम्परों की जरूरत थी। वह तब बहुत देर से उपलब्घ हुआ। चिकित्सा सुविघाएं बहुत देर से वहां के लिए रवाना हुईं। कितना अच्छा होता कि टेलीविजन पर या दूसरे किसी मायम से इतनी तीवता के भूकंप की खबर आते ही सेना के कई कई विमान उड़कर प्रभावित इलाके में राहत सामगी और पैराट्रूपर राहतकर्मी छोड़ आते। सेना के हेलीकॉप्टरों को तत्काल उड़ना था और कुछ न कुछ लेकर भूकंप प्रभावित इलाकों में पहुंच जाना था। आसपास के हर शहर-कस्बे से चिकित्सा दल जरूरी दवाओं के साथ रवाना हो जाने थे। मलबा हटाने के लिए जरूरी केनें तत्काल रवाना हो जानी थीं। और नेताओं की एहसान करने वाली घोषणाओं से पहले वहां राहत पहुंच चुकी होनी थी। मगर ऐसा नहीं हो पाया। कई सौ किलोमीटर तक मार करने वाली मिसाइलें बनाने वाले देश में कुछ सौ किलोमीटर से तत्काल मदद नहीं जा सकी। इसमें इस बात की झलक मिल रही है कि हमारे विकास की दिशा क्या है। विकास का कोई मानवीय चेहरा है कि नहीं विकास क्या विलास के लिए हो रहा है मानवता और सामाजिकता का क्या इससे कोई ताल्लुक नहीं है विकास आदमी को आदमी की और ज्यादा मदद करने के काबिल बनाने के बजाय क्या आदमी को आदमी से दूर कर रहा है गुजरात के इस महाविनाश के बहाने एक बार फिर यह साबित हो गया कि आपदा प्रबंघन नाम की कोई चिड़िया अपने यहां नहीं रहती। देश में भूकंप पहली बार नहीं आया है। देश के कुछ इलाकों में कभी भी भूकंप आ सकता है यह भी सबको मालूम है। देश के कुछ इलाकों में बाढ़ आती रहती है, कुछ इलाकों में तूफान से तबाही होती रहती है। हर बार तबाही पहले जैसी होती है। आग लगने के बाद कुआं खोदना शुरू होता है। अगर गुजरात की इस न्नासदी से कोई बात सीखनी है तो वह यही है कि आपदा प्रबंघन का एक देशव्यापी सशक्त तंन्न हमेशा तैयार रहना जरूरी है। और बाढ़ में, तूफान में, सूखा में, भूकंप में इसकी मदद बगैर किसी औपचारिक बैठक और घोषणा के पीड़ितों तक पहुंचनी चाहिए।

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